बीमा के आधारभूत सिद्धांत क्या है?

विभिन्न जोखिमों के कारण मानव के लिए असुरक्षा तथा अनिश्चितता का वातावरण बना रहता है। यही कारण है कि मनुष्य सुरक्षा चाहता है। यह सुरक्षा उसे तभी मिल सकती है, जबकि वह इन अनिश्चितताओं को निश्चितता में परिवर्तित करने में सफल हो जाये यह कहना गलत न होगा कि बीमा के माध्यम से यह कार्य आसानी से किया जा सकता है। एक व्यक्ति बीमा करा कर जोखिमों से होने वाली हानियों को प्राप्त कर सकता है। इसीलिये कहा जाता है कि बीमा जोखिमों को सुरक्षा प्रदान करता है। बीमा का यह कार्य कुछ विशिष्ट साधनों पर आधारित होता है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि इसके सिद्धांत को दो भागों में बाँटा जा सकता है


बीमा के आधारभूत सिद्धांत क्या है?
बीमा के आधारभूत सिद्धांत



बीमा के आधारभूत सिद्धांत


(क) आधारभूत या प्राथमिक सिद्धांत 

(ख) वैधानिक सिद्धांत


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(क) बीमा के आधारभूत या प्राथमिक सिद्धांत बीमा के दो आधारभूत सिद्धांत पाये जाते हैं, जो निम्नालिखित हैं


1. सहकारिता का सिद्धांत - 


बीमा का सिद्धांत सहाकारिता के सिद्धांत पर आधारित होता है। बीमा कम्पनी बीमा कराने वाले से एक निश्चित रकम प्रीमियम के रूप में लेती है, जिसके बदले में उसकी क्षतिपूर्ति का वादा करती है। वास्तव में सहकारिता बीमा का मूल आधार माना जाता है। 


प्रो. डिन्सडेल ने अपनी परिभाषा में इसी बात पर जोर दिया है। इनके शब्दों में, "बीमा एक साधन है, जिसके द्वारा कुछ की हानियाँ बहुतों में बाँटी जाती ।'


बीमा कराने के बाद लोग यह अनुभव करने लगते हैं कि उन्होंने अपनी जोखिम या हानि को बीमा कम्पनी को हस्तान्तरित किया है। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। इन्होंने अपना जोखिम को उन व्यक्तियों को दे दिया है, जो पहले से बीमा करवा चुके हैं। इसीलिये कहा जाता है कि किसी व्यक्ति द्वारा हस्तान्तरित की गयी जोखिम समस्त बीमित समूह द्वारा वहन की जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बीमा मूलतः एक सामाजिक संगठन है, जिसमें उच्च कोटि की सहकारिता पायी जाती है। 


इस प्रकार अन्त में कहा जा सकता है कि “बीमा किसी समुदाय के भाग्यवान और अभागे व्यक्तियों की पारस्परिक सहायता पर आधारित व्यवस्था है और बीमा के द्वारा अभागे व्यक्तियों की क्षति को सामूहिक रूप से समस्त बीमेदारों के बीच बाँट दिया जाता है। यही सहकारिता का उद्देश्य है और यही बीमा का मूलभूत सिद्धांत है।" 


2. सम्भावना का सिद्धांत - 


सम्भावना बीमा व्यवसाय का एक आधारभूत सिद्धांत है। आज सभी कम्पनियाँ सांख्यिकी विज्ञान के इस नियम का उपयोग प्रीमियम का निर्धारण करते समय करती हैं। इस सिद्धांत के द्वारा भावी हानियों से होने वाली आर्थिक क्षति का अनुमान लगाकर बीमा कम्पनियाँ प्रीमियम की दरों का निर्धारण करती हैं। अन्य शब्दों में इस सिद्धांत के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है, कि जो घटनायें भूतकाल में घटित हो चुकी हैं, उनकी भविष्य में होने की कितनी संम्भावना पायी जाती है। इस प्रकार भावी हानियों की सम्भावना ज्ञात करके बीमा की लागत तथा प्रीमियम दर का पता लगाया जाता है। इसी के आधार पर मृत्यु तालिका का भी निर्माण बीमा संस्थायें करती हैं। वास्तव में सम्भावना किसी घटना के होने या न होने को दर्शाता है,


डॉ. कौनर के शब्दों में "सम्भावित अनिश्चित घटनाओं के बारे में मस्तिष्क की एक स्थिति है, जो किसी अनिश्चित घटना के होने या न होने पर प्रकाश डालती है। इस सिद्धांत की सफलता के लिये अधिक संख्या का नियम अनिवार्य होता है। इस सिद्धांत को 'महांक जड़ता का नियम' अथवा बहुसंख्या प्रदत्त सिद्धांत' के नामों से भी जाना जाता है।


(ख) बीमा के वैधानिक सिद्धांत 


1. बीमा योग्य हित - 


प्रत्येक बीमा अनुबन्ध की एक अनिवार्य शर्त बीमा योग्य हित है। किसी व्यक्ति का बीमा हित किसी वस्तु के लिये तभी कहा जा सकता है, जबकि उस वस्तु के सुरक्षित रहने से उसका लाभ होता हो तथा नष्ट होने से हानि हो। कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु का बीमा उसी समय करवाता है, जब कि उस वस्तु में उसका बीमा योग्य हित हो। इसीलिये कहा जाता है कि बीमा कराने वाला व्यक्ति ऐसी वस्तु का बीमा नहीं करवाता है, जिसमें उसका बीमा हित नहीं होता है। यदि बीमा में विमोचित हित स्वार्थ का तत्व न हों, तो बीमें और जुए में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। बीमा हित कब विद्यमान होना चाहिये इस सम्बन्ध में विभिन्न बीमों के लिये अलग-अलग नियम पाये जाते हैं। जीवन बीमा में बीमा कराते समय, समुद्री बीमा में हानि होते समय, अग्नि बीमा में दोनों समय अर्थात् बीमा कराते समय तथा हानि के समय विद्यमान रहना चाहिये।


2. क्षतिपूर्ति के अनुबन्ध का सिद्धांत - 


जीवन बीमा तथा दुर्घटना बीमा को छोड़कर सभी बीमा अनुबन्धों पर क्षतिपूर्ति का सिद्धांत लागू होता है। क्षतिपूर्ति का सिद्धांत का आशय यह है कि बीमादार बीमा संविदा के अन्तर्गत अपनी वास्तविक हानि की पूर्ति करा सकता है, किन्तु वास्तविक हानि से अधिक प्राप्त नहीं कर सकता है। वास्तव में बीमा हानि पूर्ति की ही व्यवस्था है, लाभ प्राप्ति का साधन नहीं है। यदि बीमा कराने से लाभ होने लगे, तो बीमा जुआ हो जायगा। इससे बीमा का मूल ध्येय नष्ट हो जाता है। इसलिये क्षतिपूर्ति कराते समय बीमादार को यह प्रमाणित करना पड़ता है कि जिस रकम का वह दावा कर रहा है, वही उसकी वास्तविक हानि है। अतएव क्षतिपूर्ति की राशि बीमित राशि से कभी भी अधिक नहीं हो सकती है।


3. परम सविश्वास का सिद्धांत - 


बीमे का अनुबन्ध परम सविश्वास पर निर्भर होता है। अतएव बीमा कराने करने तथा बीमा करने वाले दोनों के लिये यह आवश्यक होता है कि पूर्ण विश्वास तथा सद्भावना के साथ कार्य करें। दोनों शाहों का कर्तव्य होता है कि बीमें की विषय वस्तु तथा अनुबन्ध से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण तथा आवश्यक बातें एक दूसरे को स्पष्ट रूप से बता दें। ये सभी सूचनाएँ, जिनका दूसरे पक्ष पर प्रभाव पड़ता है, महत्वपूर्ण सूचनायें कहलाती हैं। इसीलिये सभी महत्वपूर्ण सूचनाओं का स्पष्टीकरण करना अनिवार्य होता है, किन्तु बीमा कराते समय बीमा कराने वाला यदि किसी महत्वपूर्ण सूचना को छिपा लेता है, तो बीमा करने वाले को अधिकार प्राप्त होता.. है कि उस बीमा पॉलिसी को वह जब भी उसे महत्वपूर्ण सूचना का ज्ञान हो, रद्द कर सकता है। यही परम सदविश्वास का महत्व पाया जाता है।



4. अंशदान का सिद्धांत - 


जब कोई व्यक्ति अपने माल या सम्पत्ति का दोहरा बीमा कराना चाहता है, तो अंशदान की समस्या उत्पन्न होती है अर्थात् कौन सी कम्पनी किस अनुपात में क्षतिपूर्ति वहन करेगी ? सम्पत्ति की क्षति होने पर विभिन्न कम्पनियों द्वारा उसकी क्षतिपूर्ति के लिये रकम देना ही अंशदान कहा जाता है। यह अंशदान किस अनुपात में किया जायगा यह अनुबन्ध को शर्तों पर निर्भर करता है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखा जायगा कि बीमादार को वास्तविक क्षति की रकम से अधिक रकम किसी भी दशा में न प्राप्त हो सके। इस सम्बन्ध में कहा गया है कि "सभी कम्पनियाँ वैधानिक रूप से अपने अंशदान के रूप में क्षतिपूर्ति करने का दायित्व रखती हैं। यही अंशदान का सिद्धांत है। 


5. प्रत्यासन का सिद्धांत - 


इस सिद्धांत के अधिकार समर्पण के सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है। यह सिद्धांत क्षतिपूर्ति के सिद्धांत की पुष्टि करता है। प्रत्यासन का सिद्धांत अग्नि तथा समुद्री बीमा में लागू होता है। इसके अन्तर्गत क्षतिपूर्ति कर देने के बाद बीमा कम्पनी को बीमित वस्तु के सम्बंध में वे सभी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं, जो उस वस्तु के सम्बन्ध में बीमा कराने वाले के थे। अन्य शब्दों में बीमा किये गये माल की क्षतिपूर्ति करने के बाद बीमा कम्पनी बीमा कराने वाले का स्थान प्राप्त कर लेती है। इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य यह है कि बीमादार वास्तविक हानि से अधिक रकम प्राप्त न कर सके। प्रत्यासन सिद्धांत के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिये


(अ) बीमादाता को स्थान ग्रहण सम्बन्धी अधिकार क्षतिपूर्ति करने के पश्चात् ही प्राप्त होते हैं।


(ब) तीसरे पक्षकार से प्राप्त हर्जाने की रकमों पर बीमादाता का अधिकार होता है।


(स) बीमादाता तीसरे पक्ष के विरुद्ध न्यायालय में केवल बीमादार  के नाम से वाद चला सकता है



6. हानि के निकटतम कारण का सिद्धांत - 


समुद्री संकट से हुई क्षतिपूर्ति के लिये समुद्री बीमा कराया जाता है। किन्तु कुछ समुद्री संकट ऐसे हैं, जिसके लिये जहाजी कम्पनी उत्तरदायी होती है, कुछ के लिये बीमा कम्पनी और कुछ के लिये माल का स्वामी उत्तरदायी होता है। समुद्री संकट से होने वाली किसी हानि का उत्तरदायित्व किस पक्ष पर होगा, इसका निर्णय हानि के निकटतम कारण सिद्धांत के आधार पर किया जाता है। उदाहरणार्थ, एक माल से भरे जहाज में मार्ग में चूहे छेद कर देते हैं, जिसके कारण जहाज में पानी भर जाता है तथा माल की हानि हो जाती है, तो इसके लिये कौन उत्तरदायी होगा। यहाँ हानि का निकटतम कारण जहाज में पानी आ जाना है। इसके लिये बीमा कम्पनी इस हानि के लिये उत्तरदायी होगी। किन्तु जहाजी कम्पनी के कप्तान एवं कर्मचारियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक की गयी हानि के लिये बीमा कम्पनी उत्तरदायी नहीं होती है।


7. आश्वासन या वारण्टी का सिद्धांत -


बीमा संविदा में जो अनेक शर्तें होती हैं, उन्हें वारण्टी या आश्वासन कहा जाता है। आश्वासन बीमादार द्वारा बीमादाता को दिया गया बचत है, जिसके न करने पर बीमा अनुबन्ध रद्द किया जा सकता है। 

भारतीय समुद्री सीमा अधिनियम 1963 की धारा 35(1) के अनुसार “वारन्टी का आशय एक प्रतिक्षाकृत वारन्टी से है, जिसके अन्तर्गत यह कहा जाता है कि वारण्टी बीमादार द्वारा दिया गया ऐसा बचत है, जिसमें वह किसी कार्य यान करने या कोई शर्त करने की जबाबदारी लेता है या वह किसी तथ्य की विद्यमानता या अविद्यमानता पर किसी वचन की पूर्ति के लिये बद्ध होता है। 

यह वारण्टी दो प्रकार की होती है - 

(अ) अभिव्यक्त वारण्टी तथा 

(ब) निहित वारण्टी।


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