कंपनी का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं क्या हैं?

कंपनी का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं
कंपनी का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं


आधुनिक उद्योग तथा वाणिज्य की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को एकल स्वामित्व तथा साझेदारी पूरा करने असमर्थ में है। इसी कारण व्यावसायिक संगठन के कम्पनी प्रारूप का जन्म हुआ। इसे संयुक्त पूँजी कम्पनी के नाम से भी जाना जाता। है। ऐसा कहा जाता है कि इसका जन्म सर्वप्रथम इटली में 12 वीं शताब्दी में हुआ। इसके बाद औद्योगिक क्रांति के विकास के साथ-साथ 16वीं शताब्दी में इंग्लैंड में कंपनियों का विकास हुआ। कम्पनी व्यावसायिक संगठन का वह प्रारूप है जिसका निर्माण ऐच्छिक संस्था के रूप में लाभ अर्जित करने के लिए एक निश्चित कानून के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार कंपनी लाभ के लिये बनायी गयी ऐच्छिक संस्था है जिसकी पूंजी अंशों में विभाजित होती है। इन अंशों के स्वामियों का दायित्व सीमित होता है, तथा इसके संगठन का एक स्थायी व सामान्य वैधानिक उद्देश्य होता है। 


कम्पनी परिभाषाएं


प्रो. हैने के अनुसार : "संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी लाभ के लिये बनायी गयी व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है, जिसकी पूंजी हस्तांतरणीय अंशों में विभाजित होती है तथा जिसकी सदस्यता के लिये स्वामित्व होना आवश्यक है।'


न्यायाधीश जेम्स के अनुसार : "समान उद्देश्य के लिये संगठित व्यक्तियों का संघ कम्पनी है 


लाई लिण्डलेके अनुसार : “कम्पनी ऐसे अनेक व्यक्तियों को एक संस्था है, जो द्रव्य या द्रव्य के बराबर का अंशदान एक संयुक्त कोष में जमा करते हैं, तथा उनका प्रयोग एक निश्चित उद्देश्य के लिये करते हैं। इस प्रकार का संयुक्त कोष मुद्रा में प्रकट किया जाता है और कंपनी की पूंजी होता है। जो व्यक्ति इसमें अंशदान देते हैं, इसके सदस्य कहे जाते हैं। पूंजी के उतने अनुपात पर किसी सदस्य का अधिकार होता है, जो उसको क्रय किये हुये अंश के बराबर है।"


उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है, कि कंपनी का आशय एक वैधानिक तथा कृत्रिम व्यक्ति से होता है। इसका समामेलन भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के अंतर्गत होता है। इसका अस्तित्व सदस्यों से पृथक होता है, तथा सदस्यों का सीमित दायित्व होता है। इसका निर्माण किसी विशेष उद्देश्य से होता है, तथा जिसके पास अपनी सार्वमुद्रा होती है। यहीं कारण है कि कम्पनी को एक कृत्रिम व्यक्ति कहा जाता है। इसका एक स्थायी अस्तित्व होता है। विभिन्न देशों में इसे अलग अलग नाम से पुकारा जाता है। चूँकि कंपनी की संरचना विभिन्न अंशधारियों द्वारा प्रदत्त पूंजी द्वारा होती है इसलिये इसे संयुक्त पूँजी कम्पनी के नाम से जाना जाता है।


ब्रिटेन में इसे स्टाक कम्पनी, फ्रांस में सोसिएट एनोस तथा अमेरिका में निगम आदि के नामों से जाना जाता है। अतएव कंपनी की एक उचित परिभाषा निम्न प्रकार की जा सकती है कि “कम्पनी विधि विधान द्वारा निर्मित अपने सदस्यों से सर्वथा भिन्न अस्तित्व रखने वाली सार्वमुद्रा से युक्त, शाश्वत या अविच्छिन्न उत्तराधिकार की क्षमता से परिपूर्ण प्रायः सीमित दायित्व की अमूर्त एवं अदृश्य कृत्रिम व्यक्ति है।"


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कंपनी की विशेषताएँ 



1. निर्मित कृत्रिम व्यक्ति -


कम्पनी का निर्माण विधान द्वारा होता है, तथा इसे स्वतन्त्र वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त होता है। इसका व्यक्तिगत स्वरूप समामेलन प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेने के बाद प्रारम्भ होता है। एक सामान्य व्यक्ति की भाँति कम्पनी स्वयं अपने नाम पर व्यापार, अनुबंध तथा सम्पत्ति का क्रय-विक्रय करती है। वह लोगों पर मुकदमा कर सकती है, तथा न्यायालय की शरण ले सकती है, यद्यपि कम्पनी जीवन रहित होती है, फिर भी जीवित व्यक्ति की सुविधाएं इसे प्राप्त होती हैं। इसका जन्म व मरण कानून द्वारा होता है। इसलिए कंपनी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह एक विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है।


2. स्थायी अस्तित्व -


कंपनी का अस्तित्व सदैव बना रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कम्पनी का जीवन इसके सदस्यों पर आश्रित नहीं होता है। अन्य शब्दों में किसी सदस्य की मृत्यु या दिवालिया हो जाने पर कंपनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। एक के बाद दूसरे अंशधारी आते जाते हैं, किन्तु कंपनी का अस्तित्व कायम रहता है। इसलिए कंपनी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि "Members may Come, members may go, but the company goes on forever.” अतएव कम्पनी शाश्वत होती है।


3. प्रतिनिधि व्यवस्था - 


एक कंपनी में सदस्यों की संख्या प्रायः अधिक होती है। इस कारण यह संभव नहीं होता है कि प्रत्येक व्यक्ति संचालन कार्य में प्रत्यक्ष रूप से भाग ले सकें। इसलिए इसके अन्तर्गत संचालन की प्रतिनिधि व्यवस्था को अपनाया जाता है। इसमें कंपनी का प्रबंध अंशधारियों द्वारा चुने गये संचालकों के द्वारा चलाया जाता है। इन्हें संचालक मंडल कहा जाता है। साझेदारी की भाँति सभी लोग प्रबन्ध में भाग नहीं लेते हैं। इसी कारण कंपनी का प्रबंध अंशधारियों द्वारा निर्वाचित उनके प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। इसके अधिकार तथा कर्तव्य पार्षद अतर्नियमों द्वारा निश्चित किये जाते हैं, अतः इसमें लोकतंत्रीय प्रबंध व्यवस्था पायी जाती है।


4. सीमित दायित्व - 


कंपनी की एक अन्य विशेषता यह है कि इसके अंशधारियों का दायित्व सीमित होता है। कम्पनी के प्रत्येक सदस्यों का दायित्व इसके । द्वारा खरीदे गये अंशों के अंकित मूल्य तक ही उत्तरदायी होते है। हानि होने की दशा | में सदस्यों की व्यक्तिगत संपत्ति ऋणों के भुगतान के मूल्य तक ही उत्तरदायी होते हैं। हानि होने की दशा में सदस्यों की व्यक्तिगत संपत्ति ऋणों के भुगतान के लिये उपयोग नहीं किया जा सकता है। अन्य शब्दों में कंपनी के दायित्व के लिये व्यक्तिगत सम्पत्तियाँ उत्तरदायी नहीं होती है। इसलिए कहा जाता है, कि एक कंपनी में सदस्यों के दायित्व सीमित होते हैं।


5. पृथक वैधानिक अस्तित्व - 


एक कम्पनी विधान द्वारा निर्मित व्यक्ति होता है। इस कारण कंपनी का अपने अधिकारियों से सदैव पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है। ऐसी स्थिति में कंपनी का कोई भी सदस्य कंपनी के साथ अनुबन्ध कर सकता है। पृथक वैधानिक अस्तित्व होने के कारण ही कम्पनी इस प्रकार के कार्य करने में सफल हो जाती है, इसी प्रकार यदि किसी सदस्य की मृत्यु या दिवालिया अथवा सभी सदस्यों को मृत्यु या दिवालिया हो जाये तो भी कंपनी का अस्तित्व स्थायी होता है।


6. लाभ के लिये ऐच्छिक संघ - 


एक कम्पनी की स्थापना के उद्देश्य प्रायः सामान्य तथा वैधानिक होते हैं। अन्य व्यापारिक संस्थाओं की भाँति कम्पनी की स्थापना का एकमात्र उद्देश्य लाभ प्राप्त करना होता है। इसलिए कंपनी को लाभ के लिये बनायी गयी एक ऐच्छिक संस्था कहा जाता है, परन्तु साथ ही साथ कम्पनी लाभ अर्जित करते समय समाज को भलाई का भी ध्यान रखती है। यही कारण है कि जो लाभ कम्पनी को प्राप्त होता है, वह नियमों के अनुसार अंशधारियों में वोट दिया जाता है।


7. सदस्य संख्या -


साधारणतया कम्पनी दो प्रकार को होतो हैं सार्वजनिक कम्पनी तथा निजी कम्पनी एक सार्वजनिक कंपनी में कम से कम 7 तथा अधिकतम उसके द्वारा निर्गमित अंशों की संख्या के बराबर तक हो सकती है। इसी प्रकार निजी कंपनी में सदस्यों की न्यूनतम संख्या दो तथा अधिकतम 50 तक हो सकती है। इसलिये कहा जाता है, कि कम्पनी अधिनियम ने दोनों प्रकार की कंपनियों की सदस्य संख्या पर प्रतिबंध लगाए हैं। सदस्यों की संख्या को सीमित किया है।



8. सार्वमुद्रा - 


एक कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण कंपनी के पास एक सार्वमुद्रा होती है, जो उसके हस्ताक्षर तथा अस्तित्व का प्रतीक होती है। इस पर कंपनी का नाम अंकित होता है। यह कंपनी के सचिव के पास रहती है। यह कम्पनी का अधिकार युक्त हस्तान्तरण होता है। कम्पनी द्वारा प्रत्येक अनुबन्ध सार्वमुद्रा लगाने के बाद ही मान्य होता है। वास्तव में कम्पनों को बाध्य करने के लिये प्रत्येक प्रलेख पर सार्वजनिक मुद्रा का लगा रहना आवश्यक होता है। इसके विरुद्ध वाद किया जा सकता है।


9. हस्तान्तरण योग्य अंश - 


कंपनी के अंश हस्तान्तरणीय होते हैं। कम्पनी अधिनियम 1956 के अनुसार सार्वजनिक कम्पनी के प्रत्येक अंशधारी को अपने अंशों पर हस्तांतरण का अधिकार प्राप्त होता है। व्यवसाय संगठन के अन्य प्रारूपों की भांति अंश हस्तांतरण के लिये किसी की सहमति लेने की आवश्यकता नहीं होती है। अधिनियम की धारा 82 में इस बात की पुष्टि की गयी है, कि सदस्य का अंश हस्तांतरण योग्य सम्पत्ति है। यह कम्पनी संगठन को अपनी प्रमुख विशेषता है। 


10. प्रबन्ध स्वामित्व से पृथक -


कंपनी में प्रबंध स्वामित्व से पृथक व भिन्न पाया जाता है। कंपनी के स्वामी वे सभी व्यक्ति होते हैं, जिनके पास कंपनी के अंश होते हैं, किन्तु प्रबंधक वे होते हैं जो अंशधारियों द्वारा चुने जाते हैं। कंपनी के समस्त स्वामी प्रबंधक नहीं हो सकते है, किन्तु सभी प्रबंधक स्वामी अवश्य हो सकते हैं। अन्य शब्दों में कंपनी के एजेंट के रूप में कार्य करने का अधिकार संचालकों को प्राप्त होता है, न कि अंशधारियों को इस प्रकार प्रबंध स्वामित्व से पृथक होता है।


11. कार्य क्षेत्र की सीमाएँ -


कम्पनी के उद्देश्य उसके पार्षद सीमा नियम में दिये होते हैं, किन्तु उद्देश्य पूर्ति एवं कार्य संचालन सम्बन्धी नियम कम्पनी पार्षद अन्तर्नियम में दिये होते हैं। कम्पनी का कार्यक्षेत्र कम्पनी अधिनियम, पार्षद सौमा नियम तथा पार्षद अन्तर्नियम द्वारा सीमित होता है। इन्हीं नियमों के अन्तर्गत ही संचालक मंडल को कार्य करना पड़ता है। इसकी सीमा के बाहर कम्पनी कोई भी कार्य नहीं कर सकती है। इन सीमाओं का उल्लंघन करने पर कम्पनी को दंडित किया जा सकता है।


12. बाद प्रस्तुत करने का अधिकार -


कम्पनी एक विधान द्वारा कृत्रिम व्यक्ति है, तथा समस्त समाज पर केवल कम्पनी का अधिकार होता है। इसी लिये कम्पनी को द्वितीय पक्ष पर वाद प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त होता है। इसी प्रकार तृतीय पक्ष भी कम्पनी पर वाद प्रस्तुत कर सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कम्पनी विधान के अनुसार कम्पनी तथा अन्य पक्षों को एक दूसरे पर वाद प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त होता है।


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