आवश्यकता का अर्थ
साधारण बोलचाल की भाषा में आवश्यकता तथा इच्छा को पर्यायवाची समझा जाता है। इन दोनों में कोई अन्तर नहीं माना जाता है, किन्तु अर्थशास्त्र में इन दोनों अर्थात् आवश्यकता तथा इच्छा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। वास्तव में समस्त इच्छायें आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु सभी आवश्यकताओं के लिये इच्छा का पाया जाना अनिवार्य होता है।
आवश्यकता |
आवश्यकता में निम्नलिखित तीन बातों का पाया जाना अनिवार्य होता है -
(अ) वस्तु की इच्छा - आवश्यकता की प्रथम शर्त यह है कि मनुष्य के मन में इच्छा का होना आवश्यक है। जब तक किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्ति में उत्पन्न नहीं होती है तब तक उस इच्छा को आवश्यकता नहीं कहा जा सकता है। इसीलिये कहा जाता है कि जहाँ चाह होती है, राह निकल आती है।
(ब) योग्यता या साधन का होना - आवश्यकता की दूसरी शर्त यह है कि इच्छा को पूरी करने की व्यक्ति में योग्यता तथा शक्ति होनी चाहिए, अन्य शब्दों में एक व्यक्ति की इच्छा आवश्यकता तभी हो सकती है जबकि उस व्यक्ति के पास उस वस्तु को खरीदने के लिये पर्याप्त साधन हो, अतः क्रय शक्ति का होना अनिवार्य है।
(स) व्यय करने की तत्परता - व्यय करने की तत्परता आवश्यकता की अन्तिम शर्त है। इसीलिये कहा जाता है कि कोई इच्छा आवश्यकता नहीं हो सकती है जब तक कि व्यक्ति में उस इच्छा की पूर्ति के लिए साधनों को व्यय करने की तत्परता न पायी जाती हो। इसका पाया जाना नितान्त अनिवार्य है।
आवश्यकता की परिभाषा
प्रो. पेन्सन के अनुसार, - "आवश्यकता मनुष्य की उस इच्छा को कहते हैं जिसकी सन्तुष्टि के लिये उसके पास पर्याप्त धन हो तथा इन साधनों का प्रयोग वह इच्छा की पूर्ति को करने हेतु तत्पर हो।”
प्रो. जे. एस. मिल के शब्दों में, - "आवश्यकता से हमारा अभिप्राय उस इच्छा से है जिसकी पूर्ति के लिये धन तथा क्रय की तत्परता हो।”
डॉ. एरिक रोल के शब्दों में, - “अर्थशास्त्र में तृप्ति के अभाव को आवश्यकता कहते हैं जो मनुष्य को प्रयत्न एवं त्याग करने के लिये प्रेरित करती हैं जिससे कि तृप्ति की कमी पूरी हो जाये।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि व्यक्ति की समस्त इच्छाओं को आवश्यकता नहीं कहा जा सकता है। आवश्यकता के लिये इच्छा का होना आवश्यक तथा व्यक्ति के पास आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए पर्याप्त धन भी होना चाहिए। साथ ही साथ उसमें धन व्यय करने की तत्परता भी होनी चाहिए। इस प्रकार आवश्यकता वह प्रभावपूर्ण इच्छा है जिसे पूरा करने के लिये मनुष्य के पास पर्याप्त धन हो तथा साथ ही उसे व्यय करने की तत्परता भी हो।
प्रो. टॉमस के शब्दों में, - “आवश्यकता को खरीदने की योग्यता एवं इच्छा द्वारा सहारा दिया जाता है।
अतएव कहा जा सकता है कि -
आवश्यकता = वस्तु की इच्छा + पूर्ति के योग्यता या साधन + व्यय करने की तत्परता
आवश्यकता की विशेषता
आवश्यकता को निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं -
1. आवश्यकता असीमित होती है - यह एक सर्वमान्य सत्य है कि मानवीय आवश्यकताएँ असीमित होती हैं तथा इनकी पूर्ति के साधन सीमित होते हैं। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक इसी आवश्यकता के जाल में फँसा रहता है। मरने के बाद भी वह अपनी आवश्यकता दूसरों पर छोड़कर जाता है। इसलिए आवश्यकता-आर्थिक कार्य संतुष्टि का कार्य बराबर चलता रहता है, इसका कभी भी अंत नहीं होता है।
डॉ. डेविड का कथन है कि, - “मनुष्य इच्छाओं का पुलिंदा है।"
2. आवश्यकता विशेष की संतुष्टि की जा सकती है - यद्यपि मनुष्य की आवश्कताएँ अनंत होती हैं, फिर भी एक विशेष आवश्यकता की एक विशेष समय में पूर्ण रूप से संतुष्टि की जा सकती है। उदाहरणार्थ मनबोधी को भूख लगी है, वह लगातार चार रोटियों का उपयोग करता है तथा उसके बाद भोजन करना बंद कर देता है। इससे पता चलता है कि उसकी भोजन की आवश्यकता पूर्ण रूप से संतुष्ट हो चुकी है। इसलिए वह भोजन करना बंद कर देता है। संभव है कि कुछ समय बाद उसे पुनः भोजन की आवश्यकता अनुभव हो।
आवश्यकता की इस विशेषता पर सीमान्त उपयोगिता हास नियम आधारित है।
3. आवश्यकता प्रतियोगी होती हैं - आवश्यकताएँ असीमित होने के साथ-साथ आपस में प्रतियोगिता भी करती हैं। ये मनुष्य पर संतुष्टि हेतु दबाव डालती हैं। इसका कारण यह है कि हमारे साधन सीमित हैं तथा आवश्यकताएँ असंख्य हैं। इसके फलस्वरूप मनुष्य को आवश्यकताओं का चुनाव करना पड़ता है। प्रायः वे आवश्यकताएँ सर्वप्रथम पूर्ण की जाती हैं जो अधिक महत्वपूर्ण होती हैं, फिर उसके बाद कम महत्वपूर्ण आवश्यकताओं का नम्बर आता है। एक सामान्य व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को क्रम में लगाकर अपने सीमित साधन से संतुष्ट करने का प्रयास करता है।
आवश्यकता की इस विशेषता पर अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण नियम अर्थात् सम सीमांत उपयोगिता नियम या प्रतिस्थापन नियम आधारित है।
4. आवश्यकता पूरक होती है - जब दो वस्तुओं की सन्तुष्टि एक साथ की जाती है तो इसे पूरक आवश्यकताएँ कहा जाता है। इन वस्तुओं को साथ-साथ उपयोग करने पर ही पूर्ण संतुष्टि प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ पेन के लिये स्याही तथा कार के लिये पेट्रोल यदि कार की आवश्यकता को पूरा किया जाता है तो पेट्रोल की आवश्यकता का भी पूरा किया जाना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो कार पेट्रोल के बगैर बेकार हो जायेगी। इसमें एक मुख्य आवश्यकता होती है तथा दूसरी सहायक होती है। एक के अभाव में आवश्यकता की सन्तुष्टि नहीं की जा सकती है। इन दोनों ही वस्तुओं की माँग साथ-साथ की जाती है इसलिये इन्हें पूरक आवश्यकता कहा जाता है।
आवश्यकता की इस विशेषता पर संयुक्त माँग का नियम आधारित है।
5. आवश्यकता वैकल्पिक होती है - आवश्यकता की एक विशेषता यह है कि आवश्यकताओं का वैकल्पिक उपयोग सम्भव होता है। वास्तव में कहने का तात्पर्य यह है कि एक आवश्यकता की सन्तुष्टि विभिन्न साधनों से किये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ प्यास की सन्तुष्टि पानी, लस्सी, लेमन, कोको-कोला आदि से जा सकती है। इसी प्रकार यात्रा के लिये गोरखपुर या बनारस जाने के लिये विभिन्न साधनों का उपयोग किया जा सकता है।
6. आवश्यकता तीव्रता में भिन्नता रखती है - आवश्यकता का एक लक्षण यह भी है कि यह तीव्रता में भिन्न भिन्न होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ आवश्यकताएँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं तो कुछ कम महत्वपूर्ण होती हैं। चूँकि आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन सीमित होते हैं। इसीलिए एक व्यक्ति तीव्रता के क्रम में इन्हें लगाकर ही अपने साधनों के अनुसार इसकी पूर्ति करता है। इसीलिए आज प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष आवश्यकताओं के चयन की समस्या पायी जाती है।
7. आवश्यकता बार-बार उत्पन्न होती है - कुछ आवश्यकताएँ बार-बार क्रमानुसार उत्पन्न होती रहती हैं। एक निश्चित समय पर आवश्यकता विशेष की पूर्ति पूर्ण रूप से की जाती है, लेकिन कुछ समय के बाद वही आवश्यकता पुनः अनुभव की जाती है तथा उसे पूर्ति या संतुष्टि करने की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए कहा जाता है कि एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक इसी जाल में फँसा रहता है तथा वह अपनी आवश्यकताओं से कभी भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर पाता है। उदाहरणार्थ हमें प्रतिदिन प्यास की आवश्यकता को कई बार पूरा करना पड़ता है।
8. कुछ आवश्यकता आदत में बदल जाती है - कुछ आवश्यकताएँ बार-बार उपयोग करने के बाद मनुष्य की आदत में बदल जाती हैं, इसका उपयोग किया जाना व्यक्ति के लिए अत्यंत आवश्यक बन जाता है। यह आवश्यकता मानव जीवन का अंग बन जाती है। उदाहरण के लिए चाय, कॉफी, सिगरेट, पान आदि का उपयोग शौक के रूप में किया जाता है, परन्तु जैसे-जैसे इनका उपयोग किया जाता है, ये उस व्यक्ति के आदत या स्वभाव का अंग बन जाती है, इसके उपयोग के बिना उसे अच्छा अनुभव नहीं होता है तथा उसकी कार्यक्षमता पर भी इनके उपयोग का प्रभाव पड़ता है। आवश्यकता को इस विशेषता पर व्यक्ति का जीवन स्तर निर्भर होता है।
9. भविष्य की तुलना में वर्तमान आवश्यकता महत्वपूर्ण होती है - यह एक सर्वमान्य बात है कि वर्तमान निश्चित है तथा भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है और न ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसीलिए कहा जाता है कि नौ नकद तेरह उधार भविष्य की अनिश्चितता के कारण प्रत्येक मनुष्य अपने सीमित साधन से अपनी अधिकाधिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता है। प्रकार वर्तमान आवश्यकताएँ भविष्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण होती हैं।
आवश्यकता की इस विशेषता पर प्रो. फिशर का ब्याज का सिद्धान्त आधारित है।
10. आवश्यकता पर रीति-रिवाज तथा फैशन का प्रभाव होता है - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसीलिए उसकी आवश्यकताएँ, सामाजिक रीति-रिवाज तथा फैशन से भी प्रभावित होती हैं। इन आवश्यकताओं की संतुष्टि करना मनुष्य के लिए उतना ही अनिवार्य हो जाता है, जितना कि जीवन रक्षक अनिवार्य आवश्कताएँ होती हैं। हमारे समाज में इस प्रकार की आवश्यकताओं का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार फैशन आज के समाज की आवश्यकता है। इन दोनों कारणों से आज हमारी आवश्यकताएँ काफी बढ़ गयी हैं।
11. आवश्यकता ज्ञानवर्द्धक होती है - आवश्यकताएँ ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती जाती हैं। वर्तमान समय में वैज्ञानिक आविष्कारों, प्रचार, विज्ञापन, यातायात के साधनों में वृद्धि के कारण हमारी आवश्यकता में आशातीत वृद्धि हुई है। यही कारण है कि एक स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थी की आवश्यकता कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी को तुलना में कम होती है। वर्तमान समय में आवश्यकताएँ ज्ञान की वृद्धि के कारण काफी बढ़ी हैं।
12. आवश्यकता विक्रय, कला व विज्ञापन पर निर्भर होती है - हमारी आवश्यकताएँ विक्रय तथा विज्ञापन से भी प्रभावित होती हैं। वस्तुओं के बार-बार विज्ञापन तथा उसके गुणों के वर्णन से भी हमारी आवश्यकताओं में वृद्धि होती है। यही कारण है कि आज के युग में उत्पादन के बाजार में आने के पूर्व ही बड़े पैमाने पर उसका विज्ञापन किया जाता है। इसी प्रकार हमारी आवश्यकताएँ कभी-कभी विक्रेता के गुणों से भी प्रभावित होती हैं।
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