कंपनी के गुण एवं दोष बताइए?

वर्तमान युग में व्यवसाय तथा उद्योगों की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कम्पनी संगठन सबसे अधिक उपयुक्त तथा लाभप्रद सिद्ध हुआ है। व्यावसायिक संगठन के अन्य प्रारूपों की तुलना में यह प्रारूप अधिक लोकप्रिय है। वास्तव में एक सार्वजनिक कम्पनी में निम्न गुण पाये जाते हैं


कंपनी के गुण एवं दोष
कंपनी के गुण एवं दोष


कंपनी के गुण


1. अत्यधिक वित्तीय साधन - 


संयुक्त पूँजी कम्पनी के वित्तीय साधन अन्य व्यावसायिक संगठनों की तुलना में अधिक पाये जाते हैं। सीमित दायित्व होने के कारण लोग अपनी जमा पूंजी को कंपनी में विनियोग करना अधिक अच्छा समझते हैं। एक कम्पनी अपने वार्षिक लेखों को प्रकाशित करती है, जिससे जनता का कम्पनी में विश्वास उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार एक कम्पनी अपने अंश पत्रों एवं ऋणपत्रों को निर्गमित करके पर्याप्त मात्रा में पूंजी एकत्रित कर सकती है।


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2. स्थायी अस्तित्व -


कम्पनी का जीवन काल व्यावसायिक संगठन के अन्य प्रारूपों की तुलना में अधिक स्थायी होता है। इसका अस्तित्व सदैव बना रहता है। कंपनी का जीवन इसके सदस्यों पर निर्भर नहीं होता है। कंपनी के कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण इसके अस्तित्व पर इसके सदस्यों के दिवालिया हो जाने, छोड़कर चले जाने तथा मृत्यु हो जाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अपने स्थायी अस्तित्व के कारण ही कम्पनी दीर्घकालीन अनुबन्ध करने में सफल होती है।


3. सीमित दायित्व -


एक कम्पनी में प्रत्येक सदस्य का दायित्व उसके द्वारा खरीदे गये अंशों के अंकित मूल्य तक ही उत्तरदायित्व होते हैं। हानि होने की स्थिति में सदस्यों की व्यक्तिगत सम्पत्तियों का उपयोग ऋणों के भुगतान के लिये नहीं किया जा सकता है। इसीलिए सीमित दायित्व होने के कारण लोग निःसंकोच कंपनी के अंशों को खरीदते रहते हैं। 


डॉ. कैडमेन के शब्दों में : “व्यावसायिक ऋणों के प्रति दायित्व को सीमित करने का विशेषाधिकार कंपनी के प्रारूप का एक प्रमुख लाभ है।"


4. अंशों का हस्तान्तरण -


कम्पनी संगठन में अंशधारी अपने हिस्सों का हस्तान्तरण बिना किसी प्रतिबंध आसानी से कर सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे अपने अंशों को बेच भी सकते हैं। इस प्रकार की सुविधा अन्य व्यावसायिक प्रारूपों में नहीं पायी जाती है। 


5. उत्तम प्रबन्ध तथा संचालन -


एक संयुक्त पूंजी में स्वामी तथा प्रबंधन अलग-अलग होते हैं। इसका प्रबन्ध इसके सदस्यों द्वारा नहीं किया जाता है, वरन ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जो कंपनी के संचालन में विशेषज्ञ होते हैं। कंपनी का प्रबंध अंशधारियों में से चुने गये संचालकों द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ कम्पनी के कर्मचारी भी होते हैं, जो अनुभवी तथा पर्याप्त कुशल होते हैं। इस प्रकार कम्पनी को उपर्युक्त सेवाओं के कारण ही वैज्ञानिक प्रबन्ध के लाभ प्राप्त होते हैं।


6. वृहत पैमाने के उत्पादन के लाभ - 


कम्पनी संगठन में पर्याप्त पूँजी होने के कारण उत्पादन वृहत पैमाने पर किया जाता है। इसके अन्तर्गत उत्पादन आधुनिकतम स्वचालित यन्त्रों व मशीनों की सहायता से श्रम विभाजन, वैज्ञानिक प्रबन्ध तथा विवेकीकरण के आधार पर किया जाता है। इससे न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त होता है। साथ ही साथ बृहत पैमाने के उत्पादन के कारण आन्तरिक तथा बाहय बचते प्राप्त होती हैं। इस प्रकार कम्पनी को अधिक से अधिक लाभ प्राप्त होता है।


7. जनता का विश्वास -


कम्पनी के खाते तथा आर्थिक विवरण प्रकाशित होते रहते हैं, जिससे आम जनता को कम्पनी गतिविधियों की सही जानकारी मिलती रहती है। इससे कम्पनी में जनता का विश्वास बढ़ता है। साथ ही साथ एक कम्पनी को पग-पग पर राज्य के नियमों का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार कम्पनी पर समाज, कर्मचारी, विनियोगकर्त्ता, बैंक तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम हो जाता है। यही कारण है कि एक सार्वजनिक कम्पनी को आर्थिक स्थिति सुदृढ़ तथा स्थिर पायी जाती है। 


8. जोखिम का विभाजन - 


एकाकी व्यवसाय संगठन में समस्त जोखिम एक व्यक्ति को तथा साझेदारी संगठन में कुछ व्यक्तियों को झेलनी पड़ती है, किन्तु कम्पनी संगठन में जोखिम उठाना अपेक्षाकृत सरल तथा आसान होता है। इसका कारण यह है कि कम्पनी व्यवसाय की जोखिम का विभाजन अधिक संख्या में सदस्यों में हो जाने के कारण किसी को इसका भार अनुभव नहीं होता है। यही कारण है कि अंशों के खरीदने की लालसा जनता में हमेशा बनी रहती है। इस प्रकार कंपनी पर जनता का विश्वास बना रहता है। 


9. एकाधिकार के लाभ -


प्रायः यह देखा गया है कि वहत पैमाने पर व्यापार के कारण ये कंपनियां अपने बाजार क्षेत्र में एकाधिकार की स्थिति प्राप्त कर लेती है। इससे कम्पनी को वे समस्त लाभ प्राप्त होने लगते हैं, जो किसी एकाधिकारी संस्था को प्राप्त होते हैं। 


10. आयकर में रियायत या छूट -


कम्पनी व्यवसाय को प्रोत्साहन देने के लिये सरकार ने आयकर अधिनियम 1961 में अंशधारियों तथा संचालकों के लिये आयकर सम्बन्धी कुछ छूट का प्रावधान किया है। उदाहरणार्थ- कम्पनी द्वारा दिये गये ब्याज, कमीशन तथा बोनस आदि पर कर नहीं लगता है, किन्तु इस प्रकार का प्रावधान एकाकी व्यापार तथा साझेदारी व्यवसाय को लिये नहीं पाया जाता है। इन्हें आयकर में इस प्रकार की छूटें नहीं प्राप्त है।




कम्पनी के अवगुण या दोष


उपर्युक्त गुणों के साथ-साथ कम्पनी संगठन में निम्नलिखित अवगुण या दोष पाये जाते हैं 


1. स्थापना में कठिनाइयाँ -


कंपनी का समामेलन करना अनिवार्य होता है, तथा इसके लिये अनेक वैधानिक औपचारिकताओं का पालन करना पड़ता है। इसके लिए अनेक वैधानिक शर्तों की पूर्ति करना आवश्यक होता है। कंपनी के प्रवर्तन से लेकर व्यापार प्रारम्भ करने तक अनेक कठिनाइयां मार्ग में आती है। अन्य व्यापारिक संगठनों की स्थापना में इस प्रकार की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है।


2. प्रवर्तकों द्वारा छल कपट - 


प्रायः यह देखा गया है कि प्रवर्तक कम्पनी की स्थापना के बाद उसके जन्मदाता होने के कारण शोषण करते हैं। कम्पनी की स्थापना के लिये कार्यों का वे बहुत अधिक पारिश्रमिक वसूल करते हैं। पार्षद सीमा नियम एवं अंतर नियम के निर्माण में भी वे अपने हित को ध्यान में रखते हैं। कपटपूर्ण प्रविवरण जारी करने जनता का धन प्राप्त कर कम्पनी को समाप्त कर देते हैं। कम्पनी संगठन का यह एक अत्यंत गंभीर दोष है।


3. गोपनीयता का अभाव -


कम्पनी संगठन व्यवसाय में गोपनीयता का अभाव पाया जाता है। अधिनियम के अनुसार कंपनी के खातों का अंकेक्षण करवाया जाता है, तथा इसकी रिपोर्ट रजिस्ट्रार को भेजी जाती है। वित्तीय स्थिति तथा -हानि के विवरणों का प्रकाशित करवाना अनिवार्य होता है। इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि व्यापारिक रहस्यों को गुप्त रखना प्रायः असम्भव होता है।


4. सट्टे बाजी की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन -


कम्पनी संगठन का एक यह भी दोष पाया जाता है कि इससे सट्टे की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। इसका कारण यह है कि कम्पनी व्यवसाय के अन्तर्गत अंशों के क्रय तथा विक्रय पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। बाजार में अंशों की कीमतें घटती-बढ़ती है। इससे आर्थिक क्षेत्र में स्थिरता आती है, तथा कंपनी के दिवालिया होने की संभावना पाई जाती है।


5. अल्प तांत्रिक प्रबन्ध - 


यद्यपि वैधानिक रूप में कम्पनी संगठन प्रजातन्त्रीय सिद्धांत पर आधारित होता है, किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं पाया जाता है। इसका प्रबन्ध केवल कुछ चंद लोगों के हाथ में ही होता है। यह शक्तिशाली लोग सत्ता को अपने हाथों में केन्द्रित कर लेते हैं। साथ ही साथ विनियोगकर्ता ओं की बचतों का अपने हितों के लिये प्रयोग करते हैं। इससे ये लोग अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं।


6. व्यक्तिगत ध्यान की कमी -


कम्पनी का कार्य संचालन कंपनी के स्वामी के स्थान पर कंपनी के संचालक मंडल द्वारा किया जाता है। प्रायः यह देखा गया है कि इनके द्वारा कार्य में व्यक्तिगत रूप से कम ध्यान दिया जाता है। यह व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी न होने के कारण कंपनी के हितों की ओर अधिक ध्यान नहीं देते हैं। इस व्यक्तिगत ध्यान की कमी के कारण कभी-कभी कम्पनी को अपने व्यवसाय में हानि उठानी पड़ती है। यह कंपनी का एक बड़ा दोष है। 


7. निर्णय में विलंब - 


एकाकी व्यवसाय तथा साझेदारी संगठन में शीघ्रता के साथ व्यावसायिक निर्णय लिये जा सकते हैं, किन्तु संयुक्त पूंजी व्यवसाय में ऐसा किया जाना संभव नहीं हो पाता है। इसका कारण यह है कि कम्पनी अधिनियम के अनुसार इसमें कोई निर्णय लेने के लिये सभा का बुलाया जाना आवश्यक होता है। इसकी औपचारिकताएं पूरी हो जाने के बाद ही निर्णय लिये जा सकते हैं। अतएव इसमें कभी-कभी निर्णय समय पर नहीं हो पाते हैं। 


8. सीमित क्षेत्र - 


कम्पनी के कार्य क्षेत्र का निर्धारण कंपनी के पार्षद सीमा नियम द्वारा निर्धारित होता है। यदि कोई कम्पनी पार्षद सीमा नियम के बनाये गये क्षेत्र से बाहर कोई कार्य करती है, तो यह कार्य अवैधानिक माना जाता है। साथ ही साथ कंपनी के उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन भी नहीं किया जा सकता है। इसलिये इस सम्बन्ध में कहा जाता है कि कंपनी का क्षेत्र नियमों की बाध्यता के कारण सीमित पाया जाता है। यही कम्पनी की सीमा होती है।


9. हित संघर्ष - 


एक कम्पनी में प्रबन्ध, स्वामित्व तथा श्रम व कर्मचारी वर्ग अलग-अलग होते हैं। इस कारण इनके अपने हित व स्वार्थ होते हैं, जिससे आपस में हित संघर्ष उत्पन्न होने लगता है। इसी प्रकार कंपनी के विभिन्न अंशों के धारकों में भी अपने हितों के लिये संघर्ष होने लगता है। श्रमिक तथा प्रबंधन सदैव अधिक मजदूरी, वेतन तथा बोनस की मांग करते रहते हैं। इससे कंपनी का व्यापार का उद्देश्य गौण हो जाता है।


10. एकाधिकारी प्रवृत्ति -


कम्पनी का व्यवसाय वृहद पैमाने पर चलाया जाता है। इस कारण इसमें वे सभी दोष पाये जाते हैं, जो एक बड़े व्यवसाय में होते हैं। प्रायः कम्पनी बाजार पर एकाधिकार प्राप्त कर लेती है। इससे बाजार में प्रतिस्पर्धा का अंत हो जाता है। इससे उपभोक्ताओं को पहले से महँगी या अधिक कीमत पर वस्तुयें प्राप्त होने लगती हैं। इसलिये कहा जाता है कि कंपनी के एकाधिकार प्रवृत्ति का जन्म होता है।


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