एकाकी व्यापार अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं

एकाकी व्यापार अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं
एकाकी व्यापार अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं


एकाकी व्यापार व्यावसायिक संगठन का सबसे प्रारंभिक प्राचीनतम तथा सरल प्रारूप है, जो आज भी विश्व के अधिकांश देशों में पाया जाता है। इसका इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि व्यवसाय का पाया जाता है।

डॉ. ओबन्स के शब्दों में : एकाकी स्वामित्व व्यावसायिक संगठन का सबसे पुराना प्रारूप है, जो कि व्यवसाय के प्रारम्भ से ही विद्यमान है।"

इस एकाकी व्यवसाय का जन्म सर्वप्रथम कहाँ हुआ इस सम्बन्ध में मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि एकाकी व्यापार का प्रादुर्भाव मित्र, ग्रीक तथा रोम आदि देशों में सबसे पहले हुआ, परन्तु इसके विपरीत कुछ अन्य विद्वानों का कहना है कि इसका विकास सर्वप्रथम भारत में हुआ। 

इस सम्बन्ध में प्रो. हैने का कथन है कि : “व्यावसायिक संगठन का उद्गम एकाकी व्यापार में पाया जाता है तथा एकाकी व्यापार का उद्गम पारिवारिक क्रियाओं में वास्तव में एकाकी व्यापार व्यावसायिक संगठन का वह प्रारूप होता है जिसमें एक ही व्यक्ति सर्वेसर्वा होता है। वही व्यक्ति व्यवसाय को स्थापित करता है, पूँजी एकत्रित करता है तथा लाभ-हानि का वहन भी वह स्वयं ही करता है। 

अन्य शब्दों में एकाकी व्यापारी स्वयं ही व्यापार का स्वामी, उसका प्रबन्धक और कर्मचारी होता है। इसीलिये इसे एकाकी स्वामित्व, व्यक्तिगत साहसी, एकल स्वामित्व, व्यक्तिगत स्वामी, तथा व्यक्तिगत व्यवस्थापक आदि नामों से पुकारा जाता है। 

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परिभाषा 

डॉ. जेम्स स्टीफेन्सन के अनुसार : "एकाकी व्यवसाय से आशय उस व्यक्ति का है, जो कि कारोबार को केवल अपने लिये ही करता है। इस प्रकार के व्यवसाय का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि वह व्यक्ति व्यवसाय को चलाने का पूर्ण उत्तरदायित्व तथा उससे सम्बन्धित समस्त जोखिम अपने ऊपर लेता है। वही संस्था के कुल लाभ को प्राप्त करने का अधिकारी है और हानि को अकेले झेलना भी उसी का दायित्व है।"

प्रो. पीटरसन तथा प्लोमैन के शब्दों में : “एकाकी स्वामित्व एक ऐसा व्यवसाय है, जिसका स्वामित्व एवं प्रबन्ध एक ही व्यक्ति के पास रहता है, वही उपक्रम की हानियाँ व असफलताओं की जोखिम उठाता है तथा सफल संचालन के समस्त लाभों को प्राप्त करता है।

प्रो. हैने के मतानुसार : “एकाकी व्यापार व्यक्तिगत व्यापार का वह स्वरूप है, जिसमें एक ही व्यक्ति समस्त उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर व्यापार का प्रबन्ध एवं संचालन करता है तथा लाभ-हानि का पूर्ण भार भी स्वयं उठाता है।



एकाकी व्यापार की विशेषताएँ


एकाकी व्यापार व्यावसायिक संगठन का वह प्रारूप है, जिसका सर्वेसर्वा एक व्यक्ति होता है। व्यवसाय का समस्त उत्तरदायित्व केवल इस एक व्यक्ति पर होता है। व्यवसाय के असफल होने की स्थिति में व्यापार का समस्त जोखिम भी इस व्यक्ति को वहन करना पड़ता है। वास्तव में एकाकी व्यापारी स्वयं ही व्यापार का स्वामी, उसका प्रबन्धक तथा कर्मचारी होता है। 

प्रो. पीटरसन तथा प्लोमैन के शब्दों में : "एकल स्वामित्व का उसके स्वामी से कोई पृथक वैधानिक अस्तित्व नहीं होत है। वह स्वयं में ही एक फर्म है।" 


1. प्रारम्भ तथा अन्त करना सरल - 

एकल स्वामित्व को कोई भी व्यक्ति कभी भी इसे आरम्भ तथा समाप्त कर सकता है। अन्य शब्दों में इसे प्रारम्भ करने में कोई वैधानिक प्रतिबंध नहीं होता है। इसी प्रकार एकाकी व्यापारी अपनी स्वेच्छा से इसको समाप्त भी कर सकता है। अन्तः इसका प्रारम्भ व अतः करना दोनों ही सरल होता है। 

2. प्राचीनतम तथा सरलतम प्रारूप - 

एकाकी व्यापार की लोकप्रियता का प्रधान कारण यह है कि यह व्यापारिक जगत का सबसे प्राचीनतम तथा सरलतम प्रारूप है। 

प्रो. किम्बाल एवं किम्बाल के शब्दों में : “व्यापारिक संगठन के समस्त प्रारूपों में से एकाकी स्वामित्व सबसे पुराना, सरलतम तथा कुछ बातों में यह पूर्णतः प्राकृतिक है।"

3. व्यक्तिगत स्वामित्व - 

एकाकी व्यवसाय संगठन में व्यवसाय का स्वामी एक ही व्यक्ति होता है। वही व्यवसाय की सभी सम्पत्तियों का मालिक होता है। 

डॉ. जॉन ए. शुबिन के शब्दों में : "एकाकी स्वामित्व वाले व्यवसाय के अन्तर्गत एक हो व्यक्ति कर्त्ता है जो स्वामी होता है एवं अपने स्वयं के नाम से ही व्यवसाय चलाता है।"

4. एकाकी प्रबन्ध - 

एकाकी व्यवसाय में उसका स्वामी ही सम्पूर्ण व्यवसाय का संगठनकर्त्ता, नियतंत्रणकर्त्ता, तथा प्रबन्धक होता है। 

इस सम्बन्ध में डॉ. पीटरसन तथा प्लोमैन का कथन है, कि : "एकाकी स्वामित्व एक ऐसी व्यावसायिक इकाई है, जिसका स्वामित्व एवं प्रबन्ध एक ही व्यक्ति के पास होता है। 

5. पूंजी पर एकाधिपत्य - 

प्रायः यह देखा गया है कि इस प्रकार के व्यवसाय में पूंजी का विनियोग का दायित्व एक ही व्यक्ति पर होता है। कभी-कभी उसे आवश्यकता पड़ने पर उचित ब्याज को दर पर दूसरों से ऋण लेना पड़ता है। इस प्रकार दोनों ही दशाओं में पूंजी पर केवल एक ही व्यक्ति का दायित्व होता है।

6. असीमित दायित्व -

एकल व्यवसाय में व्यवसायी का दायित्व असीमित होता है। कभी-कभी उसे व्यापारिक ऋण का भुगतान केवल व्यापारिक सम्पत्ति से ही नहीं, बल्कि अपनी निजी संपत्ति से भी करना पड़ता है। 

इस सम्बन्ध में प्रो. पैकमैन के शब्दों में : "कानून एकाकी व्यापारी के घर व व्यवसाय में भेद नहीं करता है। स्वामित्व तथा जोखिम दोनों ही में सहगामी होते हैं। यही असीमित दायित्व का कारण पाया जाता है।

7. सीमित कार्य क्षेत्र - 

सीमित पूंजी, सीमित प्रबन्ध कौशल तथा असीमित उत्तरदायित्व के कारण एकाकी व्यापार का कार्यक्षेत्र प्रायः सीमित रहता है। चूँकि एकाकी व्यवसाय का संचालन एक व्यक्ति के द्वारा किया जाता है। इसलिये उसका कार्य अत्यंत सीमित होता है, क्योंकि उसकी योग्यता तथा कार्य क्षमता सीमित होती है।

8. वैधानिक औपचारिकताओं से मुक्ति - 

एकाकी व्यवसाय को प्रारम्भ करने में किसी भी वैधानिक कार्यवाही जैसे रजिस्टर्ड आदि कराने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अनुबंधीय क्षमता रखने वाला कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से किसी भी वैधानिक व्यवसाय को प्रारंभ कर सकता है। इसमें वैधानिकता का अभाव होता है।

9. व्यवसाय तथा व्यवसायी में अन्तर नहीं - 

एकल व्यवसाय तथा उसके स्वामी का अस्तित्व पृथक नहीं होता है। व्यवसाय की समस्त संपत्ति स्वयं स्वामी की होती है। वही संचालक, प्रबंधक तथा नियंत्रण कर्ता होता है। 

प्रो. गस्टनवर्ग के शब्दों में : एकाकी व्यापारी सबका स्वामी होता है तथा समस्त जोखिम उठाता है। अतएव कहा जाता है कि व्यवसाय तथा व्यवसायी दोनों ही एक होते हैं।

उपर्युक्त परिभाषाओं तथा विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि एकाकी व्यापार व्यावसायिक संगठन का एक ऐसा प्रारूप है जिसकी स्थापना एक व्यक्ति द्वारा की जाती है। एक ही व्यक्ति उस व्यापार का स्वामी, संचालक तथा प्रबन्धक सभी होता है। उसी व्यक्ति पर ही लाभ व हानि का भार होता है। 

प्रो. थॉमस के शब्दों में : ऐसे व्यापार में जहां बिक्री का क्षेत्र सीमित हो, माँग नियमित हो तथा कम पूंजी की आवश्यकता हो, जहाँ प्रतियोगिता न हो एवं परस्पर सम्पर्क की आवश्यकता हो और जहाँ अधिक जोखिम न हो, एकल व्यापार का ही पूर्ण साम्राज्य है।"


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