संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अर्थ, विशेषताएं गुण और दोष

संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अर्थ, विशेषताएं गुण और दोष
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय

संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय भारत का एक अत्यन्त प्राचीन व्यावसायिक संगठन है। इसके अन्तर्गत समस्त हिन्दू परिवार एक साथ रहते हैं तथा घर के मुखिया के आदेशानुसार सभी संयुक्त रूप से कार्य करते हैं। इसलिए यह अविभाजित हिन्दू परिवार के नाम से भी जाना जाता है।

संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अर्थ

एक विद्वान के शब्दों में : “संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय, व्यवसाय संगठन का एक ऐसा प्रारूप है, जिसमें अविभाजित हिन्दू परिवार के सभी सदस्य परिवार के कर्त्ता के नियंत्रण में व्यापार करते हैं।


अन्य शब्दों में जब एक संयुक्त परिवार के सभी सदस्य आपस में मिलकर व्यावसायिक कार्य करते हैं, तो ऐसे व्यवसाय को संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय कहा जाता है। यह व्यवसाय साझेदारी व्यवसाय से बहुत कुछ मिलता जुलता है। लेकिन इसे साझेदारी व्यवसाय नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में यह व्यवसाय प्रणाली एकाकी व्यापार की भाँति तथा समान है। इसके लाभ-हानि एकल स्वामित्व की ही भाँति है। इस व्यावसायिक स्वरूप में हिन्दू कानून शत् प्रतिशत लागू होता है। इसी प्रकार इस व्यवस्था को आयकर अधिनियम 1961 के द्वारा भी मान्यता प्रदान की गयी है। 


संयुक्त परिवार को दो भागों में बाँटा जाता है।


(अ) दायभाग - यह प्रणाली हमारे देश के केवल तीन राज्यों बंगाल, आसाम तथा उड़ीसा में प्रचलित है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत पिता अर्थात मुखिया अपने जीवन काल तक सम्पत्ति का स्वामी होता है। पिता के जीवित रहते तक पुत्र सम्पत्ति में से अपने भाग की मांग नहीं कर सकता है। पिता की मृत्यु के बाद ही उसके पुत्रों में सम्पत्ति का बंटवारा किया जा सकता है। यही दायभाग का सार होता है।


(ब) मिताक्षरा - आसाम, बंगाल तथा उड़ीसा राज्यों को छोड़कर भारत के शेष भागों में यह व्यवस्था प्रचलित तथा लोकप्रिय है। इस प्रथा के अनुसार पिता के जीवित रहते उस संपत्ति पर आगे की तीन पीढ़ी (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र) का अधिकार हो जाता है। ऐसी संपत्ति को दादेलाई सम्पत्ति कहा जाता है। हिन्दू परिवार में जन्म लेते ही बालक इस संपत्ति का अधिकारी बन जाता है। पिता जो परिवार का मुखिया या प्रधान होता है, इस संपत्ति के प्रधान के नाते अपने पास रखता है तथा इसका प्रबन्ध करता है। यदि उसके पुत्र चाहे तो वे इस संपत्ति में से अपने भाग की माँग कर सकते हैं। हिन्दू परिवार में इसे उत्तराधिकार से प्राप्त होने वाली संपत्ति माना जाता है। 


भारतीय आयकर अधिनियम 1961 के अनुसार : एक परिवार को संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय कहलाने या उसका लाभ उठाने के लिये निम्नलिखित शर्तों का पालन किया जाना अनिवार्य हैं।


(क) परिवार के पास कुछ पैतृक संपत्ति अवश्य होनी चाहिये। 

(ख) सम्पत्ति का विभाजन माँगने वाले कम से कम दो सदस्य अवश्य होने चाहिए।


परिवार के प्रधान का दायित्व असीमित होता है तथा शेष सभी सदस्यों का उत्तरदायित्व संपत्ति में उनके हिस्से को रकम के अनुपात में होता है। परिवार के मुखिया के द्वारा लिया गया निर्णय परिवार के अन्य सदस्यों को मान्य होता है, किन्तु मुखिया को परिवार के धन का दुरुपयोग करने का अधिकार नहीं होता है। यदि वह ऐसा करता है तो वह अपने इस कार्य के लिये दोषी तथा अन्य सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होता है। यही इस पारिवारिक संस्था का नियम होता है।


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संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की विशेषताएं


संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय हमारे देश के प्राचीनतम व्यवसाय संगठन का वह स्वरूप है, जिसमें एक हिन्दू परिवार के सदस्यगण परिवार के प्रधान की देखरेख में एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। इस परिवार में जन्म लेते ही बालक सम्पत्ति में सहभागी बन जाता है। इसकी कुछ विशेषताएं निम्न हैं


1. पारिवारिक व्यवसाय - 


संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय की प्रथम विशेषता यह है कि वह पूर्णत: पारिवारिक व्यवसाय माना जाता है। इसका कारण यह है कि इस व्यवसाय में सभी संयुक्त परिवार के लोग सम्मिलित होते हैं। अन्य शब्दों में हिन्दू उत्तराधिकार नियम 1956 के अनुसार कोई भी वयस्क या अवयस्क सभी को संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय का सदस्य बनने का अधिकार प्राप्त होता है। 


2. व्यवसाय का संचालन - 


परिवार के व्यवसाय का संचालन परिवार के मुखिया अन्य सदस्य उसके ही आदेशानुसार अपना-अपना कार्य करते हैं। चूँकि परिवार के संचालन का दायित्व मुखिया पर होता है इसलिये उसे परिवार के प्रधान या कर्ता के नाम से पुकारा जाता है। उसे परिवार की ओर से समस्त वैधानिक कार्य करने का अधिकार प्राप्त होता है। अतः इसका दायित्व असीमित होता है।


3. जन्म से ही सदस्यता -


परिवार में बच्चा जन्म लेते ही इसकी सदस्यता प्राप्त कर लेता है। अन्य शब्दों में ऐसे परिवार की संपत्ति पर परिवार में जन्म लेते ही बालक सहस्वामी बन जाता है। स्त्रियां भी संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय को ग्रहण कर सकती है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार अब विशेष दशाओं में स्त्रियों को इस परिवार की सदस्यता ग्रहण करने का अधिकार दिया गया है।


4. उत्तरदायित्व -


परिवार के मुखिया या प्रधान का उत्तरदायित्व संयुक्त तथा व्यक्तिगत होता है। अन्य शब्दों में इस प्रधान का दायित्व असीमित पाया जाता है, किन्तु परिवार के अन्य सदस्यों का दायित्व संपत्ति में उनके भाग की राशि तक ही सीमित रहता है, किन्तु सदस्यों की व्यक्तिगत सम्पत्ति से इस व्यवसायों के दायित्वों का भुगतान नहीं किया जा सकता है।



5. पंजीयन की आवश्यकता नहीं -


साझेदारी या कम्पनी व्यवसाय संगठन की भाँति संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय का पंजीयन कराने की आवश्यकता नहीं होती है। यह व्यवसाय भी एकाकी व्यवसाय की तरह वैधानिक औपचारिकताओं से स्वतंत्र होता है। इसका संचालन हिन्दू अधिनियम के अनुसार होता है।


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संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के गुण या लाभ


एकाकी व्यावसायिक संगठन की भाँति संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय भी अत्यन्त प्राचीन प्रारूप है। यह व्यवसाय व्यवस्था का वह प्रारूप होता है, जिसमें परिवार का मुखिया या प्रधान सर्वेसर्वा होता है। यही व्यक्ति व्यवसाय को स्थापित करता है, पूंजी एकत्र करता है तथा लाभ-हानि का वहन स्वयं करता है। 

अन्य शब्दों में व्यावसायिक व्यवस्था का एक ऐस प्रारूप, जिसकी स्थापनाकर्ता द्वारा होती है। वहाँ व्यापार का स्वामी, संचालक तथा प्रबन्धक होता है। उसी पर ही लाभ व हानि का भार होता है। इस व्यवसाय व्यवस्था में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं


1. प्रारम्भ तथा अन्त में वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं -


जिस प्रकार एकाकी व्यापार की स्थापना तथा अन्त दोनों ही सरल एवं सुगम होते हैं उसी प्रकार से संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की स्थापना तथा अन्त दोनों ही सुविधाजनक होते हैं। अपना इसमें भी कोई वैधानिक प्रतिबंध नहीं पाया जाता है। इसे आवश्यकतानुसार कभी भी प्रारम्भ तथा बंद किया जा सकता है। इसे कम से कम पूंजी में प्रारम्भ किया जा सकता है। इसमें किसी प्रकार की वैधानिकता की आवश्यकता नहीं है। यह औपचारिकताओं से स्वतंत्र होता है।


2. व्यवसाय की स्वतंत्रता - 


एकल व्यापारी की भाँति संयुक्त हिंदू व्यवसाय परिवार भी अपनी इच्छा अनुसार किसी भी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है। इस सम्बन्ध में परिवार के कर्त्ता द्वारा जो निर्णय लिया जाता है, वह परिवार के अन्य सदस्यों को मान्य होता है। इस सम्बन्ध में निर्णय लेते समय उसे परिवार के किसी अन्य सदस्य या सदस्यों से राय लेने की आवश्यकता नहीं है। इसका कारण यह है कि कर्त्ता परिवार का प्रधान होता है तथा उसके द्वारा लिये गये निर्णय सभी को मान्य होते हैं।


3. पैतृक ख्याति का लाभ


एकल स्वामित्व की तरह यह व्यवसाय भी पैतृक ख्याति पर निर्भर होता है। ऐसा माना जाता है कि पिता के बाद पुत्र अपने आप अपने पिता या पूर्वजों का व्यवसाय सीख जाता है। इस प्रकार संयुक्त पारिवारिक व्यवसाय को अपने पूर्वजों का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त होता है। यही कारण है कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत सभी परिवार के सदस्यों ईमानदारी,परिश्रम तथा निष्ठा एवं कुशलता के साथ परिवार की ख्याति में वृद्धि करने का प्रयास करते हैं। सभी को यह भी पता रहता है कि इस ख्याति का लाभ भविष्य में आने वाली पीढ़ी को प्राप्त होगा। 


4. संचालन एवं प्रबन्ध में सुविधा -


एकाकी व्यापारी की भाँति संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय के संचालन एवं प्रबन्ध का भार भी प्रधान या कर्त्ता पर होता है। व्यवसाय सम्बन्धी सुझावों में उसका निर्णय ही अन्तिम होता है। उसे किसी भी मामले में परिवार के अन्य सदस्यों से सलाह या परामर्श लेने की आवश्यकता नहीं होती है। इसका कारण यह है कि यह परिवार का सर्वेसर्वा होता है तथा परिवार के सभी सदस्यों को उसका निर्णय मान्य होता है। अतएव वह व्यवसाय के संचालन में स्वतंत्र होता है।


5. गोपनीयता - 


गोपनीयता सभी प्रकार के व्यवसायों की सफलता की कुंजी कही जाती है। एकल व्यवसाय की श्रोत व्यापारिक रहस्य सबसे अधिक गुप्त इस पारिवारिक व्यवसाय संगठन में भी पाए जाते हैं। इस व्यवस्था के अन्तर्गत चूँकि सर्वेसर्वा एक ही व्यक्ति होता है तथा उसे ही निर्णय लेने का अधिकार होता है इसलिये व्यापारी का रहस्य या निर्णय केवल एक ही व्यक्ति को पता रहता है। इसलिये इस प्रणाली में अत्यधिक गोपनीयता होती है, क्योंकि एक व्यक्ति सर्वेसर्वा होता है। इसके विपरीत साझेदारी तथा कम्पनी व्यवसाय संगठन में गोपनीयता का अभाव पाया जाता है। इनमें बहुत व्यक्ति होते हैं।


संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय के दोष या हानियाँ


1. असीमित उत्तरदायित्व- 


संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय में कर्ता का उत्तरदायित्व संयुक्त एवं व्यक्तिगत दोनों ही होते हैं। अन्य शब्दों में इस संगठन में मुखिया के दायित्व असीमित होते हैं। इस कारण उसकी निजी सम्पत्ति भी उसकी देनदारियों के भुगतान में संलग्न हो जाती है। दूसरे व्यवसाय में लाभ की कोई गारंटी नहीं पायी जाती है। इसलिए कहा जाता है कि एकाकी व्यापार की भाँति इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष असीमित उत्तरदायित्व होता है। इससे व्यवसाय को हानि होने का भय बना रहता है। यही इसका दोष है।


2. सीमित पूंजी -


संयुक्त हिन्दू पारिवारिक व्यवसाय संगठन में सीमित पूँजी की समस्या पायी जाती है। पूँजी अभाव में वह उत्पादन कार्य का विस्तार नहीं कर सकता है। इस अभाव के कारण व्यवसाय को अनेक कठिनाइयों का सामन करना पड़ता है। साथ ही इस प्रकार के व्यवसाय में ऋण प्राप्त करने की सुविधा सीमित पायी जाती है। इसलिये इनके अपने में व्यवसाय के संचालन में कठिनाई आती है।


3. सीमित प्रबन्ध योग्यता -


इस प्रकार के व्यवसाय में पूंजी की भांति प्रबन्ध करने की योग्यता भी सीमित होती कभी-कभी इसके कार्यकर्ताओं में प्रबन्ध ज्ञान भी कम होता है। वास्तव में एक अकेले व्यक्ति की निर्णय शक्ति, विवेक, बुद्धि तथा प्रबन्ध क्षमता सीमित होती है। इस कारण व्यवसाय को एक सीमा से अधिक विस्तार करना संभव नहीं होता है। यही इसका दोष पाया जाता है।



4. शीघ्रता वाले निर्णय घातक -

इसके अन्तर्गत कर्त्ता या मुखिया को कभी कभी अचानक निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही साथ उसे अन्य लोगों से सलाह लेना वर्जित होता है। इस कारण उसे स्वयं ही उतावले निर्णय लेने पड़ते हैं। इस प्रकार यह कहना गलत न होगा कि शीघ्रता में लिये गये निर्णय व्यवसाय के लिये घातक सिद्ध हो सकते हैं। इससे व्यवसाय को हानि हो सकती है।


5. गोपनीयता संदेहात्मक - 


इस प्रकार के व्यवसाय में व्यावसायिक गोपनीयता सबसे अधिक पायी जाती है तथा इसको बनाये रखना आवश्यक होता है। इस कारण व्यवसाय की प्रगति के बारे में सभी लोगों को पता नहीं चल पाता है। साथ ही इसके खातों का प्रकाशन नहीं किया जाता है। ऐसी स्थिति में व्यवसाय की गोपनीयता के कारण लोगों के मस्तिष्क में व्यवसाय के प्रति संदेह की स्थिति उत्पन्न होती है। इसका प्रभाव व्यवसाय पर पड़ता है।


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