साझेदारी का अर्थ
प्रो. किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार :
जैसे-जैसे व्यापार बढ़ता है वैसे ही वैसे एकल व्यापार का ढंग अपर्याप्त होता जाता है। ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम साझेदारी संगठन का विकास 11 वीं शताब्दी में रोम में हुआ।
प्रो. ओवेन के अनुसार :
“साझेदारी बहुत प्राचीन काल समय से ही विद्यमान है। प्राचीन काल में इसका चीन, भारत, बेबीलोन, ग्रीस तथा रोम सहित अनेक देशों में विभिन्न प्रकार से अलग-अलग उद्गम एवं विकास हुआ।
"साझेदारी को भागिता संगठन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक ऐसा संगठन है, जिसकी स्थापना स्वेच्छा से किसी वैध व्यवसाय से लाभ कमाने तथा कम लाभ को पारस्परिक समझौते के अनुसार आपस में बांटने के लिये की जाती है।
प्रो. मैकनाटन के अनुसार :
पूरक योजनाओं का लाभ उठाने तथा अधिक पूंजी एकत्रित करने की इच्छा से व्यवसायी साझेदारी को निर्माण करते हैं।
साझेदारी की परिभाषा
भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 की धारा 4 के अनुसार : “साझेदारी उन व्यक्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध है जो उन सबके द्वारा या उन सबकी ओर से किसी एक साझेदारों द्वारा संचालित व्यापार का लाभ आपस में बांटने के लिये सहमत होने हैं।
डॉ. विलियम आर. स्प्रीगल के अनुसार : “साझेदारी में दो या दो से अधिक सदस्य होते हैं, जिनमें से प्रत्येक साझेदारी के दायित्वों के लिए उत्तरदायी होता है। प्रत्येक साझेदार अपने कार्यों से दूसरे साझेदारों को बाध्य करता है और साझेदारों की निजी संपत्तियों को फर्म के णों के भुगतान के लिये प्रयोग किया जा सकता है
प्रो. जान. ए. शुविन के अनुसार : "जब दो या दो से अधिक संयुक्त रूप से किसी व्यवसाय को चलाने का दायित्व अपने ऊपर लेने का प्रसंविदा करते हैं, तब साझेदारी का निर्माण होता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि साझेदारी दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच आपसी सम्बन्ध होता है, जो किसी वैधानिक व्यवसाय से लाभ प्राप्त करने एवं उस लाभ को आपस में बांटने के लिए सहमत होते है।
चार्ल्स डब्ल्यू गटन वर्ग के अनुसार : सामान्य साझेदारी व्यवसाय संगठन वह रूप है, जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति सहस्वामियों का रूप में लाभ के लिये व्यवसाय चलाते हैं।
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साझेदारी व्यापार के तत्व
- साझेदारी व्यापार करने वाले व्यक्तियों के बीच आपस में विलेख अवश्य किया जाना चाहिये। जिस व्यापार व्यवसाय चलाने का विलेख नहीं होता है, उसे साझेदारी व्यापार नहीं कहा जा सकता हैं।
- साझेदारी व्यापार में कम से कम दो व्यक्तियों का होना अनिवार्य है। साधारण व्यापार में अधिक से अधिक 20 व्यक्ति साझेदार हो सकते हैं। बैंकिंग व्यापार में अधिक से अधिक 10 साझेदार हो सकते हैं।
- साझेदारी वैधानिक व्यापार चलाने के लिये की जाती है। जब तक किसी व्यापार का उद्देश्य वैधानिक नहीं होगा। तब तक साझेदारी स्थापित नहीं हो सकती है।
- साझेदारी व्यापार लाभ विभाजन के ध्येय से किया जाता है। यदि किसी व्यापार में लाभ-विभाजन नहीं होता है, ती उसे साझेदारी संगठन नहीं कहा जा सकता है।
- साझेदारी व्यवसाय का संचालन सभी साझेदारों द्वारा किया जा सकता है अथवा सभी साझेदारों की ओर से कोई एक साझेदार भी व्यापार का संचालन कर सकता है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि साझेदारी एक ऐसा व्यावसायिक संगठन है, जिसे दो या दो से अधिक व्यक्ति आपस में एक अनुबन्ध के द्वारा चलाते हैं। इसलिये कहा जाता है कि “साझेदारी में दो या दो से अधिक सदस्य होते हैं। जिनमें से प्रत्येक सदस्य साझेदारी के दायित्वों के लिये उत्तरदायी होता है। प्रत्येक सदस्य अपने कार्यों से अन्य साझेदारों को बाध्य कर सकता है तथा साझेदारों की व्यक्तिगत संपत्ति भी साझेदारों के ऋणों को चुकाने के लिये उपयोग की जा सकती है
साझेदारी की विशेषताएं या लक्षण
1. एक से अधिक व्यक्ति -
साझेदारी की प्रथम विशेषता यह है कि इसमें एक से अधिक व्यक्ति होते हैं। एक अकेला व्यक्ति साझेदारी फर्म की स्थापना नहीं कर सकता है। इसके लिये कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक होता है। साझेदारी अधिनियम में साझेदारी की अधिकतम संख्या के सम्बन्ध में कुछ नहीं दिया गया है, परन्तु भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के अनुसार एक साझेदारी फर्म में 20 से अधिक तथा बैंकिंग व्यापार में 10 से अधिक साझेदार नहीं होने चाहिये। यदि संख्या अधिक है तो व्यापार अवैध हो जाता है।
2. अनुबन्धीय सम्बन्ध -
साझेदारी का जन्म साझेदारों के बीच हुए अनुबन्ध के द्वारा होता है। यह समझौता उनके बीच आपसी सम्बन्ध निश्चित करता है। समझौता लिखित या मौखिक हो सकता है, किन्तु लिखित समझौता उत्तम माना जाता है। ऐसा कोई भी व्यक्ति फर्म का साझेदार नहीं बन सकता है, जो अनुबन्ध करने के अयोग्य है। अवयस्क तथा पागल व्यक्ति इसके सदस्य नहीं हो सकते हैं।
3. व्यवसाय का पाया जाना -
साझेदारी के लिये यह भी आवश्यक होता कि इसके सदस्यों द्वारा कोई न कोई व्यवसाय अवश्य ही किया जाना चाहिये। व्यवसाय में उद्योग, व्यापार, वाणिज्य तथा प्रत्यक्ष सेवायें आती हैं जो लाभ अर्जित करने के लिये की जाती है। समाज सेवा से सम्बन्धित कार्यों को व्यवसाय नहीं कहा जाता है। अतएव इसमें साझेदारी के निर्माण का प्रश्न ही नहीं उठता है।
4. लाभ अर्जित करना लक्ष्य -
व्यवसाय का एकमात्र उद्देश्य लाभ अर्जित करके उसे आपस में विभाजित करना होता है। साझेदारों को लाभ में भाग लेना तो आवश्यक होता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी साझेदार सामूहिक रूप से हानि में भी भाग ले, परंतु कम से कम एक साझेदार ऐसा अवश्य ही होना चाहिये, जो फर्म की हानि को असीमित दायित्व के रूप में वहन करने को तैयार हो ।
5.एजेन्सी सम्बन्ध -
इस साझेदारी संगठन में प्रत्येक साझेदार तथा फर्म के बीच मालिक तथा एजेंट का सम्बन्ध होता है। प्रत्येक साझेदार अपनी फर्म का एजेंट होता है तथा वह अपने कार्य के लिए फर्म को बाध्य कर सकता है। दूसरी ओर अन्य साझेदारों के द्वारा किये गये फर्म सम्बन्धी कार्य के लिए वह स्वयं भी उत्तरदायी होता है। साझेदार फर्म के स्वामी होते हैं तथा सभी साझेदार फर्म के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।
6. सामान्य प्रबन्ध -
साझेदारी में प्रबन्ध साझेदारों के द्वारा मिलजुलकर किया जाता है। प्रत्येक साझेदार को यह अधिकार प्राप्त होता है कि प्रबन्ध में हिस्सा ले, किन्तु सभी साझेदारों के लिये सक्रिय भाग लेना आवश्यक नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि साझेदारी का संचालन सभी साझेदारों द्वारा किया जा सकता है अथवा उनकी सहमति से किसी एक साझेदार द्वारा इसका प्रबन्ध किया जा सकता है।
7. असीमित दायित्त्व -
साझेदारी व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि फर्म के ऋण के भुगतान के लिये प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित होता है। यदि फर्म को सम्पत्ति फर्म की देनदारियों का भुगतान करने के लिये पर्याप्त नहीं है, तो फर्म के लेनदार सभी साझेदारों या किसी एक साझेदार की संपत्ति से भी अपने ऋण की वसूली कर सकते हैं। यही असीमित दायित्व का अभिप्राय होता है। इस प्रकार समस्त साझेदार सामूहिक रूप से तथा पृथक-पृथक रूप से ऋणों के भुगतान के लिये उत्तरदायी होते हैं।
8. सविश्वास -
साझेदारी की एक अन्य विशेषता यह है इसका आधार सविश्वास पाया जाता है। यह साझेदारी का मूल मंत्र माना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक साझेदार फर्म तथा अन्य साझेदारों के साथ परम सद्विश्वाम के साथ कार्य करता है। वास्तव में प्रत्येक साझेदार का एक दूसरे के प्रति विश्वास होता है तथा वे आपस में एक दूसरे को सच्ची जानकारी देते हैं। यही बातें व्यवसाय के हित में होती है।
9. हितों के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध -
कोई भी साझेदार अन्य साझेदारों की सहमति के बिना फर्म में से अपना हिस्सा किसी बाहरी व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं कर सकता है। इस प्रकार साझेदारी व्यवसाय में हित के हस्तांतरण पर प्रतिबन्ध लगा होता है। ऐसा करना वास्तव में इस प्रकार के व्यवसाय के हित में माना जाता है।
10. पृथक अस्तित्व नहीं -
साझेदारी फर्म में साझेदार तथा फर्म का अलग-अलग अस्तित्व नहीं होता है। साझेदारी फर्म तथा साझेदार दोनों ही अभिन्न होते हैं। वे सभी समझौते जो फर्म पर लागू होते हैं, साझेदारों पर भी सामूहिक व व्यक्तिगत रूप से लागू होते हैं। इस प्रकार साझेदारी का अस्तित्व साझेदारों से अलग नहीं पाया जाता है। यही इसका सार है।
उपयुक्त विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति, जो मिलकर व्यवसाय करते हैं, उन्हें साझेदार या भागीदार कहा जाता है। इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि "साझेदारी व्यक्तियों के मध्य विद्यमान सम्बन्ध है, जो सह स्वामियों के रूप में निजी लाभ के लिये सामूहिक रूप में व्यवसाय चलाने के लिए सहमत होते हैं।
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1 टिप्पणियाँ
Nice articles
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