भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण एवं परिणामों की व्याख्या | Causes and Consequences of Unemployment In Hindi

भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण 



भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-


1. मंद आर्थिक विकास - 


भारतीय अर्थव्यवस्था अर्धविकसित है और यहाँ आर्थिक विकास की गति भी मंद रही  है। इसलिए बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए मंद आर्थिक विकास रोजगार के अधिक अवसर प्रदान नहीं कर पाता है, अतः  उपलब्ध रोजगार की तुलना में देश में श्रम की पूर्ति अधिक रही है। 


2. जनसंख्या में तीव्र वृद्धि -


भारत में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि सदा से ही गम्भीर समस्या बनी हुई है। जनसंख्या में अधिक वृद्धि बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण है। इसलिए नौ पंचवर्षीय योजनाओं के समाप्त हो जाने के बाद भी, बेरोजगारों की संख्या घटी नहीं, बल्कि बढ़ी है।

 

3. कृषि एक मौसमी व्यवसाय -


कृषि भारत में न केवल अविकसित है, बल्कि यह एक मौसमी काम-धंधा देने वाला व्यवसाय है। निःसंदेह कृषि हमारे देश का सबसे प्रमुख व्यवसाय है और उस पर देश की अधिकांश जनसंख्या निर्भर है. लेकिन इसकी मौसमी विशेषता होने के कारण किसानों को वर्ष भर काम नहीं दे पाती और इसलिए कृषि में भी काफी व्यक्ति तीन महीने तक खाली बैठे रहते हैं। अदृश्य बेरोजगारों की संख्या कुल कृषि में कार्यशील जनसंख्या का 15% भाग है।



4. सिंचाई सुविधाओं की कमी -


भारत में नौ पंचवर्षीय योजना के पश्चात् भी, केवल 34 प्रतिशत कृषि क्षेत्रफल पर सिंचाई की सुविधाओं का प्रबंध हो सका है। सिंचाई के अभाव में अधिकतर भमि पर केवल एक ही फसल उत्पन्न की जा सकती है। इसलिए किसानों को काफी समय तक बेरोजगार रहना पड़ता है।


5. संयुक्त परिवार प्रणाली -


संयुक्त परिवार प्रणाली भी अदृश्य बेरोजगारी  को बढ़ावा देती है। बड़े-बड़े घरों में जिनके अच्छे काम-धंधे हैं, काफी ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे, जो वास्तव में कुछ भी काम नहीं करते, लेकिन परिवार की संयुक्त आय पर अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं।


संयुक्त परिवार प्रणाली के बारे में एक बात और उल्लेखनीय है कि पिछले कई वर्षों से संयुक्त परिवार प्रणाली टूटती जा रही है। इसके टूटने से कुछ व्यक्ति तो काम प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन काफी अब भी ऐसे मिलेंगे, जो रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं।


6. कुटीर एवं लघु उद्योगों का पतन -


अंग्रेजों ने औद्योगिक विकास के संबंध में, जो नीति अपनाई थी, उससे लघु एवं कुटीर उद्योगों में काम करने वाले कारीगरों को बहुत धक्का पहुँचा था। जो पदार्थ इन उद्योगों में पैदा होते थे, वे बड़े पैमाने के उद्योगों में पैदा करने शुरू कर दिये गये, जिससे इन कारीगरों को बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। 


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् निःसंदेह भारत सरकार ने इन उद्योगों को उन्नत करने का काफी प्रयास किया है। इसके बावजूद भी ग्रामीण क्षेत्रों में, इनमें काम करने वाले काफी व्यक्ति अभी भी बेकार बैठे हैं।


7. कम बचत तथा निवेश -


हमारे देश में पूँजी की कमी है। जो थोड़ी बहुत पूँजी है भी, उसका निवेश ठीक प्रकार से नहीं किया गया है। निवेश, बचत पर निर्भर करता है। यहाँ पर बचतें भी कम हैं। इसलिए बचत और निवेश में कमी के कारण श्रमिकों के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा नहीं किये जा सके हैं। 



8. श्रमिकों की गतिशीलता - 

भारत में श्रमिकों की गतिशीलता कम है, क्योंकि भारत में आमतौर पर लोगों की घर पर रहने की प्रवृत्ति बन चुकी है। वे घर से बाहर निकल कर काम तलाश करने का बहुत कम प्रयास करते हैं। भाषा, धर्म, जलवायु, रीति-रिवाज, पारिवारिक मोह आदि बातें उनकी गतिशीलता में बाधक बन जाती हैं। 


श्रम की गतिहीनता बेरोजगारी की मात्रा को और भी बढ़ाती है, क्योंकि कई स्थानों पर काम उपलब्ध होता है, किन्तु लोग अपना घर छोड़कर वहाँ जाना पसंद नहीं करते। कम गतिशीलता अधिक बेरोजगारी को जन्म देती है।


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बेरोजगारी

बेरोजगारी के परिणाम 


विगत 20 वर्षों में भारत की श्रमशक्ति में 2-5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि हुई है, जबकि रोजगार में 2-2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगार रहने वाले लोगों की संख्या में समय के साथ-साथ काफी वृद्धि हुई है। इस समय लगभग 100 लाख लोगों के बेरोजगार होने का अनुमान है। अत्यधिक बेरोजगारी, निम्न प्रकार के आर्थिक एवं सामाजिक परिणाम पैदा करती हैं 


(अ) आर्थिक परिणाम


बेरोजगारी के प्रमुख आर्थिक परिणाम निम्नांकित हैं - 


1. मानव शक्ति का अप्रयोग -


जिस सीमा तक देश में लोग बेरोजगार रहते हैं, उस सीमा तक देश में मानवीय साधनों का प्रयोग नहीं हो पाता। यह समाज के लिए एक प्रकार से अपव्यय है। 


2. उत्पादन की हानि -


जिस सीमा तक मानव शक्ति का प्रयोग नहीं हो पाता, उस सीमा तक उत्पादन की भी हानि होती है। बेरोजगार व्यक्ति केवल उपभोक्ता की तरह जीते हैं, उत्पादकों की तरह नहीं। 


3. पूँजी निर्माण में गिरावट -


उपभोक्ता के रूप में जीवन व्यतीत करने से (और उत्पादन में कुछ भी अंशदान न देने से) बेरोजगार व्यक्ति केवल उपभोग में ही वृद्धि करते हैं। वे निवेश के लिए कुछ भी अतिरेक का प्रजनन नहीं करते। इससे पूँजी निर्माण की दर में गिरावट आती है।


4. कम उत्पादकता -


अदृश्य बेरोजगारी के फलस्वरूप उत्पादन का स्तर निम्न होता है। निम्न उत्पादकता का अर्थ है, भावी विकास के लिए उत्पादन से कम अतिरेक की प्राप्ति।


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बेरोजगारी के आर्थिक परिणाम, न केवल वर्तमान उत्पादन के निम्न स्तर को व्यक्त करते हैं, बल्कि आगे निवेश के लिए कम अतिरेक के कारण भावी उत्पादन के कम स्तर को भी संकेत देते हैं। 



(ब) सामाजिक परिणाम 


बेरोजगारी के प्रमुख सामाजिक परिणाम निम्नांकित हैं -


1. जीवन की निम्न गुणवत्ता - 


बेरोजगारी जीवन की गुणवत्ता को कम कर देती है जिसका अर्थ है, निरंतर वेदना की अवस्था। 


2. अत्यधिक असमानता - 


बेरोजगारी की मात्रा जितनी अधिक होगी, आय तथा सम्पत्ति के वितरण में असमानता की मात्रा भी अधिक होगी। ऐसी स्थिति में विकास सामाजिक असमानता के साथ होता है।


3. सामाजिक अशांति - 


आतंकवाद को कई अन्य तत्वों से प्रेरणा मिलती है, लेकिन बेरोजगारी एक कष्टप्रद भूमिका के रूप में इसको, अनदेखी नहीं की जा सकती। 


4. वर्ग संघर्ष - 


बेरोजगारी समाज को 'है' और 'नहीं है' में बाँट देती है। इसके फलस्वरूप वर्ग संघर्ष जन्म लेता है, जो सामाजिक अशांति को और भी बढ़ावा देता है।


5. नैतिक पतन -


बेरोजगारी के कारण लोगों का नैतिक पतन होने लगता है। खाली समय में लोग नशीली वस्तुओं का सेवन, जुआ आदि दुर्व्यवसनों से ग्रस्त हो जाते हैं। वे उसके आदी हो जाते हैं। इस प्रकार लोगों का नैतिक पतन होने लगता है।


उक्त अध्ययन से स्पष्ट है, कि बेरोजगारी एक सामाजिक धमकी है, जो सामाजिक न्याय को झुठलाती है और 'है' तथा नहीं है' के बीच अन्तर पैदा करके सामाजिक अशांति को बढ़ाती है। जैसा विलियम बेवरिज ने कहा है कि, “बेरोजगार रखने के स्थान पर लोगों को गड्ढे खुदवाकर वापस भरने के लिए नियुक्त करना ज्यादा अच्छा है।"


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