रोजगार या सेवा का अर्थ तथा विशेषताएँ

आज के इस आर्टिकल में हम लोग रोजगार या सेवा का अर्थ तथा उसकी प्रमुख विशेषता के बारे में बात करेंगे तो चलिये जानते हैं रोजगार क्या होता हैं।


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रोजगार


रोजगार या सेवा का अर्थ


रोजगार या सेवा को आर्थिक क्रिया माना जाता है। इसके अन्तर्गत ऐसे लोग कार्य करने वाले आते हैं जिन्हें कार्य करने के बदले में वेतन या मजदूरी प्राप्त होती है। इसे नौकरी अथवा नियोजन के नाम से भी जाना जाता है। 


रोजगार के अन्तर्गत जो भी कार्य करता है उसे कर्मचारी, नौकर या नियोजित कहा जाता है। साथ ही साथ जिसके आदेश पर कार्य किया जाता है उसे नियोक्ता स्वामी तथा सेवा नियोजक कहते हैं। 



इसमें सेवा योजक तथा सेवायुक्त के बीच निश्चित सेवा शर्तों के अधीन मजदूरी या वेतन के प्रतिफल स्वरूप कार्य करने के लिये अनुबन्ध होता है। इसके अन्तर्गत सेवायुक्त अपने नियोक्ता द्वारा निर्धारित कार्यों को करता है। इसके बदले में कर्मचारी या नौकर को वेतन या मजदूरी प्राप्त होती है।



रोजगार एवं सेवा की विशेषताएँ (Employment and Service Features)


रोजगार एक आर्थिक क्रिया है तथा इसमें निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं-


1. कार्य का प्रारम्भ - 


रोजगार या सेवा के अन्तर्गत कार्य का प्रारम्भ नियोक्ता तथा कर्मचारी के बीच अनुबन्ध करने पर होता है। इसका ध्येय नियोक्ता के कार्यों को करके पुरस्कार या मजदूरी प्राप्त करना होता है। यह भुगतान मासिक या साप्ताहिक हो सकता है। इस प्रकार कर्मचारी अपने स्वामी या नियोक्ता के अधीन कार्य करता है। इसी के बाद कार्य का प्रारम्भ होता है।


2. आदेशों का पालन -


कार्य करने के पहले नियोक्ता तथा कर्मचारी के बीच कार्य शर्तें, वेतन, भत्ते तथा सुविधाओं आदि शर्तों के साथ संविदा या समझौता हो जाना अनिवार्य होता है। ये कार्य सेवा क्षेत्र में आते हैं। इसलिए कहा जाता है कि प्रत्येक कर्मचारी को अपने स्वामी के आदेशों का पालन करना आवश्यक होता है। इस प्रकार नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है।


3. कार्य की प्रकृति -


यह कहना गलत न होगा कि रोजगार या सेवा के अन्तर्गत कर्मचारी या सेवक अपने मालिक या स्वामी के आदेशों के अनुसार कार्य करता है। 


अन्य शब्दों में, इसका ध्येय नियोक्ता के कार्यों को सम्पन्न करके इसके बदले में पुरस्कार प्राप्त करना होता है। यही कारण है कि रोजगार या सेवा को भी आर्थिक क्रिया माना जाता है। इसमें जोखिम का अभाव होता है।


4. प्रतिफल की प्राप्ति -


रोजगार के अन्तर्गत सेवक को अपनी सेवा के बदले में वेतन या मजदूरी तथा अन्य सुविधाएँ प्राप्त होती है। मजदूरी का भुगतान प्रायः कार्यानुसार किया जाता है, किन्तु इसका भुगतान समयानुसार भी किया जा सकता है। इसके बदले में पुरस्कार प्राप्त होता है वह निश्चित होता है। अतः शर्तों के अनुसार कार्य करने के बदले में एक निश्चित मात्रा में राशि मिलती है।



5. जोखिम की मात्रा -


व्यवसाय की भाँति रोजगार में जोखिम की मात्रा नहीं पायी जाती है। सेवा के अन्तर्गत एक सेवक को स्वामी की शर्तों के अनुसार कार्य करना पड़ता है। ऐसा इसलिये होता है कि रोजगार एक अनुबन्ध होता है। यहाँ कारण है कि रोजगार के अन्तर्गत स्वामी के आदेशों का पालन करना आवश्यक होता है। 


6. पूँजी का अंश -


व्यवसाय की भाँति रोजगार या नौकरी में कोई विशेष मात्रा में पूँजी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसका कारण यह है कि इसमें नौकरी करने को अपने स्वामी के अनुसार कार्य करना पड़ता है, जिसकी व्यवस्था स्वामी द्वारा ही की जाती है। इसमें स्वामी के आदेशों का पालन किया जाता है। वास्तव में रोजगार में सेवक की कुशलता, दक्षता तथा वृद्धि ही उसकी पूँजी होती है।


7. उद्देश्य -


पेशे की तरह नौकरी या रोजगार भी एक आर्थिक क्रिया है। इसमें सेवक द्वारा निश्चित समय पर कार्य करना अनिवार्य होता है, तत्पश्चात् उसके कार्य के बदले में उसे आय प्राप्त होती है। यही आय सेवक की जीविकोपार्जन क साधन होता है। नौकरी का यही ध्येय माना जाता है। वास्तव में रोजगार के अन्तर्गत स्वामी के कार्यों को करने के बदले में पारिश्रमिक प्राप्त होता है।


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