सामाजिक संरचना से क्या अभिप्राय है इसके महत्व पर प्रकाश डालिए | importance of social structure in hindi

सामाजिक संरचना का अर्थ


सामाजिक परिवर्तन (जैसे-स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, नर्सिंग होम) के उन मूल तत्वों से है, जो किसी देश के सामाजिक विकास की प्रक्रिया के लिए आधारशिला का कार्य करते हैं। 


सामाजिक विकास, मानव संसाधन के विकास पर बल देता है। जिसका अर्थ है, निपुण कार्यकर्ता एवं स्वस्थ तथा कुशल मानव जाति का विकास करना। आर्थिक आधारभूत संरचना आर्थिक संवृद्धि पर बल देती है अर्थात् वह लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करती है। 

इसके विपरीत सामाजिक आधारभूत संरचना मानवीय संवृद्धि पर बल देती है, जिसका अर्थ है उनके जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करना। सत्य तो यह है कि आर्थिक संवृद्धि बिना मानवीय विकास के अपूर्ण है। इसलिए आर्थिक तथा सामाजिक आधारभूत संरचना एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक-दूसरे प्रभाव को प्रबल बनाती है तथा सहायता प्रदान करती है।


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सामाजिक संरचना का महत्व

सामाजिक संरचना का महत्व


1. उत्पत्ति के साधनों की पूर्ति -


मानवीय संसाधन उत्पत्ति के साधनों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे- श्रम, साहस, तकनीशियन, इंजीनियर तथा विशेषज्ञ की पूर्ति मानव संसाधनों से होती है, जिन पर आर्थिक विकास निर्भर करता है। प्राकृतिक साधनों का दोहन करने की क्षमता का महत्व मानवीय संसाधनों में होती है। 


2. नवीन तकनीक के उपयोग में सहायक - 


यदि श्रमशक्ति को तकनीकी, इंजीनियरिंग, प्रबंध, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में उचित प्रशिक्षण दिया जाता है तो मशीनों, उपकरणों तथा नई उत्पादन तकनीक का उपयोग कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। निपुण तथा जानकार लोगों की टीम तैयार करना मानव पूँजी का निर्माण करना है, जो उतनी ही महत्वपूर्ण होती है जितनी भौतिक पूँजी।


3. श्रम की कुशलता में वृद्धि -


सुदृढ़ सामाजिक आधारभूत संरचना से श्रम की कार्यकुशलता बढ़ती है। अकुशल श्रमिक की तुलना में कुशल श्रमिक अधिक निपुण होता है। स्वास्थ्य की सुविधाओं की उपलब्धता से श्रमिकों की शारीरिक क्षमता में वृद्धि होती है और लम्बे समय तक कठिन काम करने में सक्षम होते हैं।


4. सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन -


भारत की सामाजिक व्यवस्था पिछड़ी हुई है। अधिकांश लोग और विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोग अशिक्षित हैं। वे भाग्यवादी तथा अंधविश्वासी हैं। स्थिति आर्थिक विकास में बाधक होती है। शिक्षा के द्वारा उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव लाया जा सकता है।


5. उत्पादक क्षमता में वृद्धि - 


विकसित सामाजिक आधारभूत संरचना अर्थव्यवस्था की सहायक होती है। इसका कारण यह है कि कुशल श्रमिक आधुनिक तकनीक का उपयोग आसानी से कर सकते हैं। 


आयातित तकनीक को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप ढाल सकते हैं अथवा सुधार सकते हैं तथा उत्पादन की नई तकनीक भी विकसित कर सकते हैं।


6. जीवन की गुणवत्ता में सुधार -


विकसित सामाजिक आधारभूत संरचना से लोगों के जीवन सुधार लाया जा सकता है। यह सुधार निम्न बातों पर निर्भर करता है - 


(i) स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार करके 

(ii) शिक्षा सुविधाओं का विस्तार करके

(iii) आवास की सुविधाएँ उपलब्ध करके

(iv) बेहतर नागरिक सुविधाएँ प्रदान करके।


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मानवीय संसाधनों का विकास काफी हद तक एक विकसित सामाजिक आधारभूत संरचना पर निर्भर करता है। जो आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। 


आर्थिक एवं सामाजिक आधारभूत संरचना में परस्पर संबंध 


आर्थिक एवं सामाजिक आधारभूत संरचनाओं में परस्पर संबंध हैं, क्योंकि -


1. एक-दूसरे के पूरक -


आर्थिक एवं सामाजिक आधारभूत संरचनाएँ- एक-दूसरे के पूरक हैं। एक शिक्षित तथा स्वस्थ व्यक्ति हो ऊर्जा, परिवहन एवं संचार के साधनों का उचित उपयोग कर सकता है। यदि एक देश की जनसंख्या अशिक्षित तथा अस्वस्थ है, तो वह आर्थिक आधारभूत संरचनाओं का उचित उपयोग नहीं कर सकती। 


इसी प्रकार शिक्षा तथा स्वास्थ्य का ऊँचा स्तर विकसित सामाजिक आधारभूत संरचनाओं के अभाव में अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं होगा। भारत में शिक्षित बेरोजगारी का प्रमुख कारण सामाजिक आधारभूत संरचनाओं का अभाव है। 


2. एक-दूसरे को विकसित करने में सहायक -


आर्थिक आधारभूत संरचना, सामाजिक आधारभूत संरचना को विकसित करती है। जैसे- परिवहन व संचार की सुविधाएं जितनी अधिक होगी, शिक्षा का उतना ही अधिक विस्तार हो सकेगा। इसी प्रकार सामाजिक आधारभूत संरचना भी आर्थिक आधारभूत संरचना को विकसित करती है।


सामाजिक संरचना के घटक


सामाजिक आधारभूत संरचना के प्रमुख घटक हैं -


(अ) शिक्षा (Education)

(ब) स्वास्थ्य (Health) 

(स) आवास (House) 


(अ) शिक्षा (EDUCATION)


शिक्षा, सामाजिक आधारभूत संरचना का सबसे महत्वपूर्ण घटक है, क्योंकि शिक्षित मनुष्य आर्थिक विकास की नींव है। यह अर्थव्यवस्था के लिये आवश्यक कुशल तथा प्रशिक्षित व्यक्तियों की पूर्ति करती है, विज्ञान तथा तकनीकी को प्रोत्साहन देती है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करती है, लोगों की मानसिकता में बदलाव लाती है, नये विचार तथा उन्नत तकनीक को अपनाने के लिये प्रेरित करती है, विकास में जन-सामान्य की सक्रिय भागादारी बढ़ाती है तथा लोगों को महत्वपूर्ण जानकारी देती है। इन सब बातों के फलस्वरूप आर्थिक विकास को गति तेज होती है।


शिक्षा का महत्व तथा उद्देश्य - 


1. शिक्षा से अच्छे नागरिक उभर कर सामने आते हैं।

2. शिक्षा से विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का विकास होता है।

3. देश के सभी क्षेत्रों के प्राकृतिक तथा मानवीय साधनों के प्रयोग को शिक्षा सुविधाजनक बनाती है। 

4. शिक्षा से लोगों के मानसिक स्तर का विकास होता है। 

5. संवृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया में लोगों की अधिक सहभागिता से आर्थिक विकास में सहायता मिलती है। 

6. शिक्षा से देश के निवासियों के सांस्कृतिक स्तर को प्रोत्साहन मिलता है।

7. शिक्षा मानवीय व्यक्तित्व को विकसित करती है। 


स्वतंत्रता के समय भारत में शिक्षा की स्थिति बहुत कमजोर थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। स्वतंत्रता के समय 6-11 वर्ष आयु समूह के 40% से भी कम बच्चे स्कूल जाते थे, जबकि आज 96% बच्चे स्कूल जाते हैं। 


स्वतंत्रता के समय प्राइमरी स्कूल लगभग 2 लाख थे, मिडिल स्कूल 13,000 थे, हाईस्कूल 7,000 थे, कॉलेज 500 थे तथा विश्वविद्यालय 25 थे, जो आज क्रमशः बढ़कर 6.50 लाख, 2.5 लाख, 1.50 लाख, 12,000 तथा 250 हो गये हैं। तकनीकी शिक्षा में भी अत्यधिक प्रगति हुई है। शोध तथा अनुसंधान के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है। 


इंजीनियरिंग, स्नातक कॉलेज, डिप्लोमा स्तर के कॉलेज, कम्प्यूटर शिक्षण संस्थाओं, व्यवसाय प्रबंधन संस्थानों, मेडिकल कॉलेज, आई. आई. टी, संस्थानों, कृषि महाविद्यालयों आदि का पर्याप्त विकास हुआ है। स्वतंत्रता के समय इनकी संख्या बहुत कम थी।


(ब) स्वास्थ्य (HEALTH)


स्वास्थ्य, सामाजिक आधारभूत संरचना का एक महत्वपूर्ण घटक है, क्योंकि स्वास्थ्य, सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक कल्याण की अवस्था है। 


इसका अर्थ केवल बीमारी का न होना ही नहीं है, बल्कि इससे अभिप्राय एक व्यक्ति की स्वस्थ शारीरिक एवं मानसिक अवस्था से है।किसी व्यक्ति के काम करने की योग्यता एवं क्षमता काफी सोमा तक उसके स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। 


अच्छा स्वास्थ्य जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि लाता है। जनसंख्या के स्वास्थ्य में विकास होना, सामाजिक आधारभूत संरचना का एक महत्वपूर्ण घटक है। वास्तव में, व्यक्ति का स्वास्थ्य किसी भी देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास का अटूट अंग होता है। 


अच्छे स्वास्थ्य से अभिप्राय है -


(i) कठिन कार्यों को संभालने की क्षमता में सम्पूर्ण वृद्धि 

(ii) श्रम की उत्पादकता में वृद्धि 

(iii) मानसिक योग्यताओं में वृद्धि। 


स्वास्थ्य के विषय में कहा गया है 'Health is Wealth' स्वास्थ्य बुनियादी संरचनाओं में अस्पताल, डॉक्टर, नर्स, अस्पताल के बिस्तर आदि का समावेश होता है। लोगों के स्वास्थ्य का मूल्यांकन शिशु मृत्यु दर, जीवन प्रत्याशा, पौष्टिक स्तर, रोग आदि के द्वारा किया जाता है।


भारत में स्वास्थ्य का अध्ययन निम्नलिखित दो शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है -

(I) स्वतंत्रता के समय स्वास्थ्य की स्थिति एवं

(II) स्वतंत्रता के पश्चात् स्वास्थ्य का विकास। 


(I) स्वतंत्रता के समय स्वास्थ्य की स्थिति -


स्वतंत्रता के समय देश में स्वास्थ्य की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। सन् 1941 में मृत्यु दर 27-4 प्रति हजार प्रति वर्ष थी। जीवन की अवधि 32 वर्ष थी। बच्चों को जन्म देते समय प्रति हजार में 20 स्त्रियों की मृत्यु हो जाती थी। प्रतिवर्ष लगभग 10 करोड़ व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित होते थे तथा उनमें से 10 व्यक्ति मर जाते थे। 


सन् 1951 में क्षय रोग से पीड़ित क लोगों की संख्या 25 लाख थी। उनमें से प्रतिवर्ष 5 लाख लोग मर जाते थे। छूत की बीमारियाँ जैसे हैजा तथा चेचक सर्वव्यापक थीं तथा अनेक बार महामारी के रूप में फैल जाती थी। लोगों का स्वास्थ्य काफी निम्न था 


स्वतंत्रता के समय स्वास्थ्य समस्या के अत्यन्त दयनीय होने के अनेक कारण थे -


(i) प्रदूषित पर्यावरण 

(ii) अपर्याप्त भोजन 

(ii) कुपोषण

(iv) साफ पीने के पानी की कमी

(v) उपर्युक्त आवासों की कमी

(vi) स्वास्थ्य संबंधी जागरुकता एवं शिक्षा की कमी

(vil) डॉक्टरों व नर्सों की कमी स्वतंत्रता के समय प्रति 6,430 4 लोगों के लिए एक डॉक्टर था तथा प्रति 43,000 व्यक्तियों के लिए एक नर्स थी। 


उस समय प्रति 60,000 लोगों के लिए एक दाई तथा प्रति लाख व्यक्तियों के लिए एक दन्त चिकित्सक था। अधिकांश डॉक्टर एवं नर्से शहरों में स्थित थी केवल 25 प्रतिशत डॉक्टर गाँवों में काम करते थे। मेडिकल कॉलेजों की संख्या 30 थी तथा गाँवों में एक स्वास्थ्य केन्द्र था।


(II) स्वतंत्रता के पश्चात् स्वास्थ्य का विकास -


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में आर्थिक विकास योजनाओं के कारण विगत 55 वर्षों में स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में मृत्यु दर कम होकर 8-7 प्रति हजार हो गयी है। 


शिशु मृत्यु दर 183 प्रति हजार प्रतिवर्ष से कम होकर 71 हो गयी है। जीवन की अवधि बढ़कर 65 वर्ष हो गयी है। अस्पतालों में डॉक्टरों तथा बिस्तरों की संख्या ढाई गुना से अधिक तथा नसों की संख्या 6 गुना से अधिक हो गयी है। 


मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़कर 268 हो गयी है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 22,842 स्वास्थ्य केन्द्र तथा 1,37,311 उपकेन्द्र हैं, जबकि 1950-51 से पहले एक भी ऐसा केन्द्र नहीं था। मलेरिया, क्षयरोग और हैजा जैसी जानलेवा बीमारियों पर काबू पा लिया गया है।


(स) आवास (HOUSING)


आवास, सामाजिक आधारभूत संरचना का एक महत्वपूर्ण घटक है। सामान्यतया, आवास व्यवस्था से अभिप्राय, इनसाधारण के रहने वाले मकानों से है। भारत में आवास व्यवस्था उपयुक्त नहीं है। 


एक अनुमान के अनुसार, भारत में केवल 12 प्रतिशत व्यक्ति ही पक्के मकानों में रहते हैं, जबकि शेष 88 प्रतिशत व्यक्ति कच्चे मकानों में अथवा बिना छत के मकानों में अथवा फिर खुले आसमान के नीचे ही रहते हैं गाँवों के अधिकांश मकानों में पीने का पानी, नहाने का कक्ष, मूत्रालय एवं शौचालय आदि का अभाव है। 


शहरों में भी गंदी श्रम बस्तियाँ हैं, जहाँ नागरिक सुविधाओं का भारी अभाव है। भारत के गाँवों एवं शहरों में मकानों की समस्या बहुत गम्भीर रूप धारण कर चुकी है। 


आवास समस्या के दो पहलू -


(अ) परिमाणात्मक एवं 

(ब) गुणात्मक। 


(अ) परिमाणात्मक समस्या


भारत के गाँवों एवं शहरों में मकानों का अभाव है। राष्ट्रीय भवन निर्माण संगठन (N.B.O.) के अनुसार, "भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 927 लाख तथा शहरी क्षेत्रों में 367 लाख आवास हैं। 


वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों में 206 लाख तथा शहरी क्षेत्रों में 104 लाख आवासों को मिलाकर कुल 310 लाख आवासों की कमी होने का अनुमान है।" 


आवास की परिमाणात्मक समस्या के दो प्रमुख रूप हैं -


(क) शहरी आवास व्यवस्था - 


भारत के शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है। सन् 1921 में 11-2% 1931 12% 1941 13-9%, 1951 17-3%, 1961 18%, 1971 19-9%, 1981 #23-7%, 1991 में 30-3% एवं 2001 में 25.7% हो गयी है। इस बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण शहरों में आवासीय समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। 


जिस गति से शहरों में जनसंख्या बढ़ रही है, उस गति से मकान नहीं बन रहे हैं, परिणामस्वरूप -


(i) मकानों के किराये तेजी से बढ़ रहे हैं,

(ii) मकान मालिक एवं किरायेदारों के बीच मकान खाली कराने या किराया बढ़ाने के झगड़े बढ़ रहे हैं, 

(iii) सरकारी जमीनों पर कब्जा करके झुग्गी बनाकर रहने की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है, 

(iv) एक ही कमरे में कई लोगों के रहने से शुद्ध हवा नहीं मिल पाती है, 

(v) गंदी बस्तियों की संख्या बढ़ रही है एवं 

(vi) सड़क के किनारे सोने वालों की संख्या बढ़ रही है आदि। 


शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के तेजी से बढ़ने के अनेक कारण हैं, जैसे -


(i) रोजगार सुविधाएँ शहरों में गाँवों की अपेक्षा अधिक है 

(ii) शहरी जिन्दगी, ग्रामीण जिन्दगी को अपेक्षा आकर्षक है, क्योंकि यहाँ अनेक सुविधाएँ हैं, यथा- बिजली, पानी, चिकित्सा, शिक्षा, आदि 

(iii) शहरों में प्रतिदिन आय अधिक होती है

(iv) शहरों में औद्योगीकरण तेजी से हो रहा है, परिणामस्वरूप लोग गाँव छोड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं

(v) परिवहन के साधनों में वृद्धि हुई है, अतः गाँव से शहर की और शीघ्रता से आया जा सकता है।


(ख) ग्रामीण आवास -


भारत गाँवों का देश है, जहाँ 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती हैं। इनके पास केवल कच्चे मकान या झोपड़ियाँ हैं। एक अनुमान के अनुसार, गाँवों में केवल 20% मकान ही पक्के हैं, बाकी मकान कच्चे हैं। 


इन मकानों को विशेषता यह है कि इनमें पशु व मनुष्य एक ही मकान में रहते हैं स्नानगृह व शौचालय तथा पीने के पानी की भी व्यवस्था नहीं है, साथ ही डकैती के भय से सन्दूकनुमा बनाये जाते हैं, जिनमें रोशनदान व खिड़की की भी व्यवस्था नहीं है। गाँवों में सड़कें व नालियाँ नहीं के बराबर हैं। इस प्रकार हमारे ग्रामीण क्षेत्रों के मकान अच्छे नहीं है और यहाँ केवल 5% व्यक्तियों को ही पीने का साफ पानी मिल पाता है।


(ब) गुणात्मक समस्या -


भारत में मकानों की गुणात्मक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। इनमें से अधिकांश मकानों में पीने के पानी, सफाई एवं नालियों का अभाव है। भारत में 12% से भी कम जनसंख्या को पक्के मकान उपलब्ध हैं। इस प्रकार 88% जनसंख्या कच्चे मकानों में रहती हैं। 


इन मकानों में अनिवार्य सुविधाएँ, जैसे-पीने का पानी, नहाने घर शौचालय आदि का अभाव है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि मकान बनाने के साथ-साथ वर्तमान मकानों की स्थिति में भी सुधार किया जाये। 


न्यूनतम लागतों पर बनने वाले मकानों के निर्माण पर जोर देना चाहिए। निजी क्षेत्र के मकान बनाने के लिए सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसीलिए सन् 1987 का वर्ष संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय आवास वर्ष के रूप में मनाया गया।


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