आर्थिक आधारभूत संरचना
अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ एशियन ड्रामा " में लिखा है कि किसी भी देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए कुछ बुनियादी अथवा मूलभूत सुविधाओं का होना अत्यना आवश्यक है।
इन मूलभूत सुविधाओं को ही आधारभूत संरचना अथवा अधो-संरचना कहा जाता है। किसी देश का विकास उस देश की कृषि एवं उद्योगों पर आधारित होता है। कृषि के लिए ऊर्जा, साख, परिवहन आदि चाहिए, तो उद्योगों के लिए मशीनरी, विपणन सुविधा, परिवहन, संदेशवाहन आदि।
आधारभूत संरचना
(i) शक्ति - कोयला, तेल, सूर्य शक्ति, वायु शक्ति आदि
(ii) परिवहन - इसमें रेल, सड़कें, पोत व वायु परिवहन आदि
(iii) संचार - डाक, तार, टेलीफोन, रेडियो बेतार का तार आदि
(iv) बैंक - वित्त व बीमा
(v) विज्ञान व तकनीक
(vi) कुछ सामाजिक मद, जैसे - शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि आते हैं।
- सामाजिक संरचना से क्या अभिप्राय है इसके महत्व पर प्रकाश डालिए
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आर्थिक आधारभूत संरचना |
आर्थिक आधारभूत संरचना का महत्व
1. तीव्र आर्थिक विकास -
बुनियादी संरचना जितनी विकसित होगी, देश का आर्थिक विकास भी उतनी ही तेजी से होता है। जहाँ एक ओर शिक्षण और शोध से नयी तकनीकों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, वहीं दूसरी ओर कृषि और उद्योग क्षेत्र में इसका उपयोग करने के लिए ऊर्जा, सिंचाई, परिवहन, संचार एवं वित्तीय संस्थाओं का विद्यमान होना आवश्यक है।
2. श्रम की आपूर्ति -
श्रम की कुशलता में वृद्धि करने के लिए श्रम की गतिशीलता अति आवश्यक है। यह गतिशीलता परिवहन एवं संचार के साधनों द्वारा ही प्रदान की जाती है।
3. वित्त की उपलब्धता -
आर्थिक विकास के विभिन्न कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है, जिसकी आपूर्ति मौद्रिक एवं वित्तीय संस्थाओं द्वारा की जाती है।
4. संसाधनों का उपयोग -
भूमि पर खेती के लिए नहरों आदि के माध्यम से सिंचाई के साधनों का विकास जरूरी है। अनाज को मण्डी तक ले जाने के लिए परिवहन के साधन जरूरी हैं।
कृषि की विभिन्न आगतों को खरीदने के लिये वित्तीय संस्थाओं का विकास जरूरी है। इसी प्रकार, उद्योगों द्वारा परिवहन के साधनों का विकास जरूरी है। मशीनों को चलाने के लिए ऊर्जा के साधनों का होना आवश्यक है।
5. बाजार का विस्तार -
परिवहन एवं संचार के साधन बाजार के आकार के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संचार के साधनों से वस्तुओं का व्यापक प्रचार किया जा सकता है तथा बाजार मूल्यों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है। परिवहन के कुशल साधनों की सहायता से शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं को भी सुदूर स्थित बाजारों तक ले जाया जा सकता है।
6. काम की कार्य कुशलता में वृद्धि -
शिक्षा, प्रशिक्षण एवं स्वास्थ्य सेवाओं के कारण श्रम की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
आर्थिक आधारभूत संरचना
आर्थिक आधारभूत संरचना से अभिप्राय, आर्थिक परिवर्तन के उन सभी तत्वों (जैसे-शक्ति या ऊर्जा, परिवहन तथा संचार) से है, जो आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया के लिए एक आधारशिला का कार्य करते हैं, अतः ऊर्जा की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता उत्पादन प्रक्रिया की गति में वृद्धि लाती है, परिवहन के प्रचुर साधन वस्तुओं की उत्पादकों से उपभोक्ता तक पहुँचाने में सुविधा प्रदान करते हैं, संचार के प्रचुर साधन बाजार की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाते हैं, आदि।
आर्थिक आधारभूत संरचना के प्रमुख घटक -
(अ) ऊर्जा - कोयला, खनिज तेल, विद्युत् एवं गैर-परम्परागत साधन।
(ब) परिवहन - रेल, सड़क, पोत, हवाई जहाज आदि ।
(स) संचार - डाक, तार, रेडियो, दूरदर्शन आदि।
(अ) ऊर्जा अथवा शक्ति (Energy or Power)
किसी भी देश का आर्थिक विकास काफी हद तक उस देश में उपलब्ध ऊर्जा के संसाधनों पर निर्भर करता है, प्राय: जिस देश में सस्ते व पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा के साधन उपलब्ध होते हैं, वह देश अपना विकास सुगमता से और द्रुतगति से कर सकता है।
इसका कारण यह है कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों-कृषि, उद्योग, परिवहन आदि में ऊर्जा के साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसके विपरीत, जिस देश में ऊर्जा के साधन अपर्याप्त होते हैं, वह देश अन्य सभी आवश्यक सुविधाओं के होते हुए भी विकास मंद गति से कर पाता है।
इसीलिए प्रत्येक देश अपनी विकास योजनाएँ बनाते समय ऊर्जा के साधनों के विकास पर विशेष जोर देता है। आर्थिक आधारभूत संरचना का सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटक ऊर्जा है।
ऊर्जा को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है -
(i) वाणिज्यिक ऊर्जा
(ii) गैर-वाणिज्यक ऊर्जा
वाणिज्यिक ऊर्जा के महत्वपूर्ण घटक कोयला, पेट्रोलियम उत्पाद, प्राकृतिक गैस तथा बिजली है। इन वस्तुओं का व्यापक रूप से प्रयोग कारखानों तथा फार्मों में वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इनको प्राप्त करने के लिए कीमत देनी पड़ती है तथा इनके क्रय-विक्रय के लिए एक सुव्यवस्थित बाजार होता है। वहीं दूसरी ओर,
गैर-वाणिज्यिक ऊर्जा के महत्वपूर्ण घटक ईंधन की लकड़ी, कृषि-अवशिष्ट (जैसे भूसा) और पशु अवशिष्ट (जैसे-गोबर) है। इनका प्रायः प्रयोग ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू उद्देश्यों मुख्यतः खाना पकाने में किया जाता है। ईंधन की लकड़ी तथा कृषि अवशिष्ट गाँवों के लोगों को अक्सर निःशुल्क पदार्थों के रूप में प्राप्त हो जाते हैं।
ऊर्जा के स्त्रोत (Sources of Energy)
ऊर्जा के प्रमुख रूप से दो स्रोत हैं—
1. ऊर्जा के परम्परागत स्रोत
2. ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्त्रोत।
1. ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत -
ऊर्जा के परम्परागत स्रोत, वे स्रोत हैं जिनकी हमें जानकारी है और जिनका प्रयोग बहुत लम्बे समय से हो रहा है। इसके उदाहरण हैं-कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस तथा बिजली ऊर्जा के प्रमुख परम्परागत स्रोत निम्नांकित हैं
(i) कोयला (Coal)
कोयले को काला सोना तथा काला हीरा कहते हैं। यह ऊर्जा का महत्वपूर्ण साधन है। कोयले से कल-कारखाने, इंजन, रेलें आदि चलते हैं। इसे ईंधन के रूप में भी काम में लाया जाता है। भारत में कोयले का उत्पादन सर्वप्रथम सन् 1814 में रानीगंज (पश्चिम बंगाल) में शुरू हुआ, लेकिन परिवहन सुविधा के अभाव के कारण इसका विकास नहीं हो सका।
इसके बाद सन् 1830 में कुछ अन्य खानों में भी उत्पादन प्रारंभ किया गया। सन् 1860 तक 50 खानों से कोयला निकाला जाने लगा। उस समय वार्षिक उत्पादन 2-82 लाख टन था। रेलवे की स्थापना ने इस उद्योग को प्रोत्साहन दिया। सन् 1914 तक नवीन खानों से कोयला निकाला जाने लगा।
इस समय कोयले का उत्पादन बढ़कर 160 लाख टन वार्षिक हो गया। स्वतंत्रता के समय देश में कोयले का उत्पादन बढ़कर 300 लाख टन हो गया था। वर्तमान में कोयले का वार्षिक उत्पादन लगभग 4000 लाख टन वार्षिक है।
(ii) विद्युत शक्ति (Electric Power)
अर्थव्यवस्था के ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही क्षेत्रों के समन्वित विकास में विद्युत शक्ति एक महत्वपूर्ण घटक है। अर्थव्यवस्था का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहाँ विद्युत शक्ति की जरुरत नहीं पड़ती हो।
पीने वाले पानी के लिए, परिवहन साधनों को चलाने के लिए, संचार सुविधाओं के लिए, कार्यालय के लिए, घरों व सड़कों पर रोशनी इत्यादि के लिए विद्युत् को भारी मात्रा में जरूरत पड़ती हैं। विश्व के विकसित देशों की उन्नति का रहस्य विद्युत् उत्पादन ही है।
वर्तमान में बिजली की उत्पादन क्षमता 12,058 मेगावाट हो गई है। इसमें 70% तापीय विद्युत, 28% पन बिजली तथा 2-4% नाभिकीय ऊर्जा शामिल है। वास्तविक उत्पादन पन बिजली का 73-8 बिलियन किलोवॉट, तापीय बिजली का 466.6 बिलियन किलोवॉट तथा नाभिकीय बिजली का 17.7 बिलियन किलोवॉट है। इस प्रकार कुल बिजली उत्पादन में पन बिजली का भाग 13-2% तापीय बिजली का भाग 83.6% तथा नाभिकीय बिजली का भाग 3-2% है।
(iii) खनिज तेल या पेट्रोलियम (Petroleum)
आधुनिक युग में देश की अर्थव्यवस्था के विकास में खनिज तेल या पेट्रोलियम ऊर्जा का बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी साधन के रुप में प्रयोग होता है। देश का कृषि विकास, औद्योगिक विकास, परिवहन साधनों का विकास रखा व्यवस्था आदि इसी पर निर्भर है।
पेट्रोलियम न केवल शक्ति का साधन ही है, बल्कि बहुत से उद्योगों का आधार भी है। पेट्रोलियम एक प्रकार का तरल पदार्थ है, जो भूमि से निकलता है तथा इसका रंग भूरा या पीला या गहरा हरा होता है। भूमि से निकालने के लिए गहरे कुएँ होते हैं।
कुएँ से निकले तेल को अशोधित तेल कहते हैं। इन्हीं कुओं से गैस भी निकलती है जो ईंधन के रूप में जलाने के काम आती है। इस जलाने वाली गैस के अलावा अन्य प्रकार की रासायनिक गैस भी इन्हीं कुओं से प्राप्त होती हैं।
स्वतंत्रता के समय भारत में पेट्रोलियम का वार्षिक उत्पादन लगभग 3 लाख टन था। आज यह बढ़कर 350 लाख टन से भी अधिक हो गया है। भारत घरेलू साधनों से अपनी आवश्यकता का 30 प्रतिशत भाग ही पूरा कर पाता है, अत: शेष 70 प्रतिशत खनिज तेलों का आयात किया जाता है। आयात पर प्रतिवर्ष एक लाख करोड़ रुपये से भी अधिक राशि खर्च करनी पड़ती है।
2. ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत
ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत, वे स्रोत हैं, जिनकी खोज हाल ही के वर्षों में की गई है और जिनके प्रयोग को लोकप्रियता होनी अभी बाकी है। ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत निम्नलिखित हैं
(i) सौर विद्युत् ऊर्जा - मानव कल्याण के लिए सौर ऊर्जा का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष इस्तेमाल किया जाता है। प्रत्यक्ष सौर ऊर्जा में विकिरण ऊर्जा होती है। जबकि अप्रत्यक्ष सौर ऊर्जा वह है जो उन तत्वों से मिलती है जिनमें सौर ऊर्जा निहित होती है।
सौर ऊर्जा को सीधे ताप ऊर्जा के रूप में तथा इस ऊर्जा को बिजली में बदलकर उपयोग किया जाता है। फोटो वोल्ट बैटरियाँ सीधे सौर ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित करती हैं।
प्रतिवर्ग कि.मी. इलाके में 20 मेगावाट सौर बिजलो का उत्पादन किया जा सकता है। भारत में सौर ऊर्जा के उपयोग हेतु दो माध्यम प्रणाली विकसित की गई है प्रथम बैटरियाँ और दूसरा विभिन्न सौर तापीय प्रणालियाँ।
(ii) वायु ऊर्जा - वायु की मदद से घूमते पंखे की गतिज ऊर्जा का इस्तेमाल विद्युत् बनाने में किया जा सकता है। भारत में 45,000 मेगावाट की वायु ऊर्जा क्षमता ऑकी गई है।
कुल मिलाकर 1.628 मेगावाट क्षमता अधिस्थापित की जा चुकी है। वायु ऊर्जा कार्यक्रम को मजबूत करने हेतु भारत सरकार वायु संसाधन आकलन कार्यक्रम चला रही है।
(ब) परिवहन (Transportation)
परिवहन का अर्थ
परिवहन के अन्तर्गत मनुष्यों एवं सम्पत्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। परिवहन के साधनों से तात्पर्य, उन साधनों से है जिनके द्वारा मनुष्य या वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँचायी जाती हैं।
हिन्दी भाषा का शब्द 'परिवहन' अंग्रेजी भाषा के Transport' शब्द का हिन्दी अनुवाद है, जिसका अर्थ 'पार ले जाने वाला होता है।
इस प्रकार शाब्दिक उत्पत्ति के आधार पर 'परिवहन' शब्द का प्रयोग व्यक्तियों एवं वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाने के लिए किया जाता है।
परिवहन की परिभाषा
1. प्रो. फेयर एवं विलियम्सन के अनुसार परिवहन का अर्थ - मनुष्यों तथा सम्पत्ति का एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन से है। परिवहन का प्रमुख उद्देश्य व्यक्तियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना तथा पदार्थों को उत्पादन के स्थान से उपयोगिता वाले स्थान पर ले जाया जाना होता है।"
2. कर्ट वाइडन फील्ड के अनुसार - "परिवहन समस्त यांत्रिक साधनों तथा संगठनों का योग है, जो व्यक्ति वस्तुओं और समाचारों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।"
इस प्रकार, परिवहन के साधनों से उन साधनों का बोध होता है, जिनके द्वारा वस्तुएँ एवं व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाये जाते हैं। आधुनिक परिवहन से तात्पर्य, ढुलाई के साधनों की गति में वृद्धि और उनके सस्तेपन से है।
आधुनिक परिवहन से रेल, मोटर, जहाज और हवाई जहाज आदि शीघ्रगामी साधनों का बोध होता है। आधुनिक परिवहन के साधनों में भाप, तेल और बिजली का प्रयोग होता है। इससे उनकी ढुलाई क्षमता में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
(स) संचार अथवा संदेश वाहन सेवाएँ (communication services)
संचार सेवाओं में डाक एवं तार, टेली संचार व्यवस्था प्रसारण, दूर-दर्शन एवं सूचना सेवाएँ शामिल की जाती हैं। बाजारों के बारे में आवश्यक सूचना उपलब्ध कराकर तथा आवश्यक प्रेरणा देकर भी संचार प्रणाली क्रेताओं व विक्रेताओं को प्रभावी रूप में जोड़ती है और इस प्रकार अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाती हैं।
संचार सेवाओं का निरन्तर विस्तार होता जा रहा है। डाकखाना, तार, टेलीफोन, सेल्यूलर फोन, फैक्स, ई-मेल, राजधानी चैनल, मेट्रो चैनल, ग्रीन चैनल, व्यापारिक चैनल, थोक डाक चैनल, वीरिओडिकल चैनल, स्पीड पोस्ट, एक्सप्रेस सेवा, ई-पोस्ट, ई-बिल पोस्ट आदि के प्रचलन ने भारतीय अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है, लेकिन ये सब सेवाएँ स्वतंत्रता के बाद और विशेष रूप से पिछले एक दशक में विकसित हुई हैं। स्वतंत्रता के समय संचार सेवाएँ बहुत सीमित थीं।
स्वतंत्रता के समय देश में लगभग 23,444 डाक घर थे, जो आज बढ़कर 1,55,618 हो गये हैं, जिनमें से 1,38,500 डाक घर तो ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 17,118 शहरी क्षेत्रों में स्थित है। वर्तमान में औसत रूप से डाकघर 21-13 वर्ग कि.मी. क्षेत्र तथा 6,602 की जनसंख्या को अपनी सेवाएँ देता है। स्वतंत्रता के समय आज की तुलना में 20% से भी कम सेवाएँ प्रदान की जाती थीं।
तार सेवाएँ सर्वप्रथम सन् 1851 में कोलकाता के डायमण्ड हार्बर के लिये प्रारंभ की गई थी। बाद में यह सन् 1884 में आगरा व कोलकाता के लिये खोली गई। इसमें डेमी मशीन की सहायता से तार का संदेश भेजा जाता है। अब तो कम्प्यूटर व संचार साधनों के आगमन से डाक प्रणाली पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
टेलीग्राम का स्थान फैक्स ने तथा लम्बी दूरी के टेलीफोन का स्थान ई-मेल ने ले लिया है। स्वतंत्रता के समय ये सब नहीं थे, अतः डाक प्रणाली ही मुख्य आधार थी। विगत एक दशक में दूरसंचार क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। सार्वजनिक क्षेत्र का दूरसंचार नेटवर्क एशिया में सबसे बड़ा है। स्वतंत्रता के समय दूरसंचार क्षेत्र का विकास नगण्य था।
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