आर्थिक सुधार का अर्थ, उद्देश्य एवं आवश्यकता | Economic reform meaning objective need in hindi

आर्थिक सुधार का अर्थ


नये आर्थिक सुधार का तात्पर्य, जुलाई सन् 1991 के बाद से भारत सरकार द्वारा अपनाये गये विभिन्न नीतिगत उपायों एवं परिवर्तनों से है, जिनका उद्देश्य, अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पद्धत्मिक वातावरण तैयार कर उत्पादकता एवं कुशलता में वृद्धि करना है।


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आर्थिक सुधार


नये आर्थिक सुधार कार्यक्रम के प्रमुख शिल्पी डॉ. मनमोहन सिंह तत्कालीन वित्तमंत्री के अनुसार “नये आर्थिक सुधार कार्यक्रम में औद्योगिक उत्पादन कुशलता एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा करने की क्षमता में वृद्धि, विदेशी विनियोजन एवं तकनीको पहले की तुलना में अधिक उपयोग, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कार्य निष्पादन एवं क्षेत्र में विवेकीकरण तथा सुधार करना एवं वित्तीय क्षेत्र के आधुनिकीकरण पर बल दिया जायेगा, जिससे यह अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक कुशलता के साथ कर सके !



रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन के अनुसार, "नई आर्थिक नीति में जुलाई, सन् 1991 के बाद से किये गये विभिन्न नीतिगत उपाय और परिवर्तन शामिल हैं। इन सभी उपायों का संयुक्त लक्ष्य अर्थव्यवस्था की कुशलता को बढ़ाना है। 


विविध नियंत्रणों वाले विनिमय तंत्र की, चाहे वह निजी क्षेत्र में क्यों न हों, क्षमता बिखर जाती हैं और प्रतियोगिता का स्तर भी घट जाती है। नई आर्थिक नीति का उद्देश्य अर्थव्यवस्था में और अधिक प्रतिस्पर्द्धा वातावरण तैयार करना है, ताकि आर्थिक प्रणाली को उत्पादकता तथा कुशलता में सुधार हो ।"


आर्थिक सुधार के उपाय

नये आर्थिक सुधार कार्यक्रम के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं 


1. नियंत्रित अर्थव्यवस्था के स्थान पर उदारता की नीति।


2. सार्वजनिक क्षेत्र को संकुचित कर निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन। 


3. विदेशी विनियोजन को बढ़ाया।


4. उत्पादन की उन्नत तकनीक का प्रयोग। 


5. कृषि के आधुनिकीकरण को प्रोत्साहन


6. व्यापार नीति, मौद्रिक नीति तथा राजस्व नीति में व्यापक परिवर्तन।


7. राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करना।



आर्थिक सुधार के उद्देश्य 


आर्थिक सुधारों का उद्देश्य भारत के लोगों के जीवन की गुणवत्ता में तेजी से एवं स्थिरता से सुधार लाना है। श्री. पी. एन. धर ने अपनी पुस्तक Economic Reforms in India' में आर्थिक सुधारों के निम्नांकित पाँच उद्देश्य बताये हैं


1. स्वतंत्र व्यापार -


सरकार की रणनीति है, कि आयात-निर्यात व्यापार स्वतंत्र हो तथा आयात-निर्यात शुल्क उन्नत देशों के समान हों, जिसमें विशेष आयात लाइसेंस न हो, सिवाय छोटी अपवाद सूची के 


2. स्वतंत्र विनिमय दर -


विनिमय दर प्रणाली व्यापार के लिए बँटवारा प्रतिबंध से स्वतंत्र हो।


3. वित्तीय प्रणाली - 


वित्तीय प्रणाली ऐसी हो, जो प्रतियोगी बाजार वातावरण और विनियमित सुदृढ़ विवेकपूर्ण सिद्धांत एवं प्रमाप पर आधारित हो। 


4. कुशल एवं गतिशील औद्योगिक क्षेत्र -  


देश में कुशल एवं शक्तिमान औद्योगिक क्षेत्र हों, जिस पर केवल पर्यावरण सुरक्षा, औद्योगिक सुरक्षा, अनुचित व्यापार व एकाधिकार व्यवहार तथा कपटपूर्ण बातों पर ही प्रतिबंध हो।


5. स्वतंत्र प्रतियोगी एवं धारा प्रवाह सार्वजनिक क्षेत्र -


देश में स्वतंत्र, प्रतियोगी एवं धारा प्रवाह सार्वजनिक क्षेत्र हों, जिसमें आवश्यक संरचनात्मक सार्वजनिक क्षेत्र वस्तुएँ एवं सेवाएँ बनें।


आर्थिक सुधार की आवश्यकता 


1. राजकोषीय घाटे में वृद्धि-सन् 1991 से पहले सरकार के गैर -


विकासात्मक व्ययों में लगातार वृद्धि होने के कारण राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा था। राजकोषीय घाटे से तात्पर्य है, सरकार के कुल व्यय और कुल प्राप्तियों (ऋणों को छोड़कर) का अन्तर यह सरकार द्वारा लिये गये कुल ऋण के बराबर होता है। 


1981-82 में यह सकल घरेलू उत्पाद का 5.4% था। 1990-91 में यह बढ़कर 8.4% हो गया। राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को कर्ज लेने पड़ते हैं तथा उन पर ब्याज देना पड़ता है इसलिए राजकोषीय घाटा बढ़ने हो गई। 



1980-81 में केन्द्रीय सरकार को अपने कुल व्यय का 10% ब्याज के रूप में खर्च करना पड़ता था। 1990-91 में ब्याज की रकम बढ़कर केन्द्रीय सरकार के कुल खर्च का 36.4% हो गई। इस बात की पूरी संभावना हो गई थी, कि सरकार ऋण जाल में फँस सकती थी। 


अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे- विश्व बैंक आदि का सरकार की वित्तीय स्थिति में विश्वास कम हो गया। इसलिए सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए गैर-विकासात्मक खर्चों में काफी कमी करे।


2. बढ़ता हुआ प्रतिकूल भुगतान संतुलन -


भुगतान संतुलन से तात्पर्य, किसी देश के कुल निर्यातों तथा आयातों के अन्तर से है। जब कुल आयात, कुल निर्यात से अधिक हो जाते हैं तो भुगतान संतुलन प्रतिकूल हो जाता है। हमारे देश को वस्तुओं एवं सेवाओं को आयात करने के लिए विदेशी विनिमय की आवश्यकता होती है। 


यह विदेशी विनिमय वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात करके प्राप्त किया जाता है। इसे प्राप्त करने का दूसरा तरीका, विदेशों में रहने वाले गैर-निवासी भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाला धन है। जब विदेशी विनिमय की प्राप्तियाँ उस किये जाने वाले खर्च से कम हो जाती है अर्थात् जब कुल आयातों का मूल्य कुल निर्यातों के मूल्य से अधिक हो जाता है तो भुगतान संतुलन की समस्या उत्पन्न होती है। 



यद्यपि हमारे देश के निर्यातकों को कई प्रकार की रियायतें तथा प्रेरणाएँ दी गयी थीं, लेकिन हमारे निर्यातों में अधिक वृद्धि नहीं हो सकी। इसका मुख्य कारण यह था, कि बाजार में हमारे उत्पादन दूसरे देशों के उत्पादन से प्रतियोगिता नहीं कर पाते थे। उनकी गुणवत्ता अपेक्षाकृत घटिया थी। यह सरकार की उद्योगों को संरक्षण देने की नीति का प्रत्यक्ष परिणाम था। 


निर्यातों में होने वाली धीमी वृद्धि की तुलना में आयातों में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप भुगतान संतुलन का घाटा बहुत अधिक बढ़ गया। भारत का भुगतान संतुलन का घाटा 1980-81 से निरंतर बढ़ता जा रहा था। 


1980-81 में भुगतान संतुलन के चालू खाते का घाटा 2,214 करोड़ रु. का था। 1990-91 में यह बढ़कर 17,367 करोड़ रु. हो गया। भुगतान संतुलन के चालू खाते के घाटों को पूरा करने के लिए विदेशी कर्जों को अधिक मात्रा में लिया गया। विदेशी कर्जे सकल घरेलू उत्पाद के 12% थे, वे 1990-91 में बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद के 23% हो गये। 


1980-81 में इन कर्जों की किस्तों तथा ब्याज की रकम अर्थात् विदेशी ऋण सेवा के भार में बहुत अधिक वृद्धि हुई। 1980-81 में विदेशी ऋण सेवा भार भारत को निर्यात से प्राप्तियों का 15% था। 1990-91 में यह बढ़कर 30% हो गया। इसके फलस्वरूप भुगतान संतुलन के घाटे में बहुत अधिक वृद्धि हुई। 


3. खाड़ी संकट -


सन् 1990-91 में इराक युद्ध के कारण पेट्रोल की कीमतें बहुत बढ़ गई। भारत को खाड़ी देशों से जो विदेशी विनिमय प्राप्त होता था, वह बंद हो गया। खाड़ी संकट का भारत के भुगतान संतुलन पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसके फलस्वरूप भुगतान का घाटा बहुत अधिक बढ़ गया।


4. विदेशी विनिमय के भण्डारों में कमी -


सन् 1990-91 में भारत के विदेशी विनिमय कोष इतने कम हो गये कि वे 10 दिन के आयात के लिये भी काफी नहीं थे। विदेशी विनिमय कोष जो 1986-87 में 8,151 करोड़ रुपये का हो गया था, सन् 1989-90 में कम होकर 6,252 करोड़ रुपये ही गया। 


चन्द्रशेखर सरकार को विदेशी ऋण सेवा का भुगतान करने के लिए सोना गिरवी रखना पड़ा। सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से कर्ज लेने के लिए उनके द्वारा प्रस्तावित उदारवादी नीति को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा।


5. कीमतों में वृद्धि - 


भारत में कीमतों में काफी वृद्धि हुई मुद्रा स्फीति की औसत वार्षिक दर 6.7% से बढ़कर 16.7% हो गई। सन् 1991 से पहले लगातार तीन वर्षों तक अच्छी मानसून के बाद भी खाद्य पदार्थों की कीमतों में काफी वृद्धि हुई। 

मुद्रा स्फीति (कीमतों में वृद्धि) के बढ़ते हुये दबाव के कारण देश की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई। कीमतों में वृद्धि की वार्षिक दर बढ़ने का एक मुख्य कारण मुद्रा की पूर्ति में तेजी से होने वाली वृद्धि थी। 


मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि का मुख्य कारण सरकार द्वारा बढ़ती हुई घाटे की वित्त व्यवस्था थी, घाटे की वित्त व्यवस्था से तात्पर्य है,सरकार द्वारा अपने घाटे को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक से कर्ज लेना। रिजर्व बैंक यह कर्ज नये नोट छापकर देता है। मुद्रा स्फीति की ऊँची दर के फलस्वरूप उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप हमारे उत्पादन की घरेलू और विदेशी माँग पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।


6. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की असफलता - 


भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के सन् 1951 में केवल 5 उधम थे, लेकिन 2001 में उनकी संख्या बढ़कर 234 हो गई। इनमें कई हजार करोड़ रुपये का निवेश किया गया था। पहले 15 वर्ष तक इन उद्यमों का कार्यकरण संतोषजनक था, लेकिन इसके बाद इनमें से अधिकांश उद्यमों में हानि होने लगी। इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम अर्थव्यवस्था के लिए दायित्व बन गये।


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