कौटिल्य के आर्थिक विचार | Kautilya economic thoughts in hindi

भारतीय आर्थिक चिंतन में कौटिल्य का महत्वपूर्ण स्थान है। 'कौटिल्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त' था। इतिहास में वह चाणक्य के नाम से भी विख्यात है। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री और प्रमुख सलाहकार था। शासन विधि के सफल संचालन के लिए उसने ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की थी। 


कौटिल्य की इस पुस्तक में 6,000 श्लोक, 180 प्रकरण, 150 अध्याय एवं 15 अधिकरण हैं। इतिहासकारों के अनुसार कौटिल्य ने इस पुस्तक की रचना 300 ई.पू. में की थी। विद्धानों के मतानुसार कौटिल्य ने इस पुस्तक में राजनीति शास्त्र, धर्म, नीति, न्याय, प्रशासन आदि सभी विषयों का समावेश किया है। इसलिए यह ग्रन्थ आज भी अर्थशास्त्र का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।


kautilya-ke-aarthik-vichar
कौटिल्य के आर्थिक विचार


कौटिल्य के आर्थिक विचार


कौटिल्य के आर्थिक विचारों को निम्नांकित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है -


1. अर्थशास्त्र की परिभाषा - कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र के प्रकरण 180 में अर्थशास्त्र की परिभाषा देते हुए लिखा है कि "मनुष्य की आजीविका” को अर्थ कहते हैं। मनुष्य द्वारा उपयोग में लाई जा रही भूमि को भी अर्थ कहते हैं। ऐसी भूमि को ग्रहण करने और उसकी सुरक्षा करने वाले साधनों का विवेचन करने वाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं।


उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि कौटिल्य ने भूमि को अर्थव्यवस्था का आधार माना है। इसलिए उसने भूमि को भी 'अर्थ' माना है। अतः अर्थशास्त्र में भूमि को प्राप्त करने एवं उसकी रक्षा करने के उपायों का अध्ययन किया जाता है। अर्थात् "अर्थशास्त्र में उन मानवीय क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, जो भूमि को प्राप्त करने एवं उसकी रक्षा करने के लिए किए जाते हैं।"


2. वरत - कौटिल्य ने अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय में वरत शब्द का प्रयोग किया है। प्राचीन आर्थिक विचारकों ने इस शब्द का अभिप्राय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से लिया है। कौटिल्य के अनुसार वरत के अन्तर्गत कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को शामिल किया जाता है। 


उसने लिखा है कि वरत अर्थात् अर्थशास्त्र में कृषि, पशुपालन व व्यापार शामिल हैं। इसके द्वारा अनाज, पशु, स्वर्ण, ताम्रादि धातु तथा श्रम प्राप्त होता है, इन्हीं की सहायता से राजा अपना कोष भरता है तथा शत्रुओं को दण्ड द्वारा वश में रखने में समर्थ होता है। इस प्रकार कौटिल्य के आर्थिक विचारों का विशिष्ट महत्व है।


3. अर्थ का स्वभाव तथा उद्देश्य - कौटिल्य ने 'अर्थ' शब्द का विस्तृत अर्थों में प्रयोग किया है। उन्होंने अर्थ के अन्तर्गत उन सभी वस्तुओं को सम्मिलित किया है, जो मुद्रा या द्रव्य की भाँति कार्य करती है। उनके अनुसार, सोना-चाँदी, सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति, मूल्यवान वस्तुएँ, पशु, वनों से प्राप्त होने वाली उपज एवं भूमि से प्राप्त होने वाली खनिज सम्पदा 'अर्थ' है।


कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में अर्थ उपार्जित करने के तरीकों एवं अर्थोपार्जन के उद्देश्य की भी विवेचना की है। उसके मतानुसार -


(i) कौटिल्य के मतानुसार, अर्थ कठोर परिश्रम द्वारा अर्जित किया जाना चाहिए, साथ ही अर्थ अर्जित करने की विधि भी उचित होनी चाहिए।


(ii) अर्थ प्रतिक्षण उसी प्रकार अर्जित किया जाना चाहिए, जिस प्रकार क्षण-क्षण ज्ञान एवं विद्या का अर्जन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को धन का अर्जन धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा, करना चाहिए, लेकिन अर्थोपार्जन की यह प्रक्रिया निरंतर चलते रहना चाहिए।


(iii) कौटिल्य ने अर्थ एकत्रित करने अथवा संचय करने के कार्य को भी महत्व दिया है। उनका विचार था कि संचित धन मनुष्य के संकटकाल में सहायक होता है, लेकिन कौटिल्य ने यह भी स्पष्ट किया है कि एकमात्र अर्थ संचय करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि जीवन में पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए धन को एक साधन के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।


(iv) यदि धन को अच्छी स्त्री, अच्छे पुत्र या अच्छे मित्र का पालन-पोषण करने या धमार्थदान के उद्देश्य से प्राप्त किया जाता है, तो ऐसे  धन की प्राप्ति सदा लाभदायक होती है।


4. औद्योगिक नीति-औद्योगिक नीति के संबंध में कौटिल्य ने निम्न विचार प्रकट किए हैं -


(i) राजकीय उद्योग-कौटिल्य का विचार था कि कुछ उद्योगों का संचालन राज्य के द्वारा किया जाना चाहिए। उन उद्योगों के लिए श्रम, पूँजी व व्यवस्था संबंधी जिम्मेदारी राज्य को होनी चाहिए। इसके अन्तर्गत शौशा, मणी, लोहा व लवण, आदि खनिज उद्योग आते हैं।


(ii) निजी उद्योग-कौटिल्य के अनुसार, कुछ उद्योग ऐसे होंगे, जिन पर निजी व्यक्तियों का स्वामित्व होगा। इनको देख-रेख व्यक्ति स्वयं करेंगे तथा लाभ-हानि का अधिकार भी उन्हीं का होगा। इनके संचालन के लिए निजी उपक्रमियों को ही श्रम, पूँजी व व्यवस्था का प्रबंध करना होगा। इनमें खेती, सेतु, शिल्प, पशुपालन, शराब, माँस, गायन एवं नृत्य, आदि आते हैं।


5. दास प्रथा - कौटिल्य दास प्रथा के कट्टर विरोधी थे। वे दास प्रथा को मानवता के विरूद्ध और अवैध मानते थे। उनका विचार था कि यदि कोई व्यक्ति किसी को दास बनने के लिए विवश या बाध्य करता है, तो उस व्यक्ति को कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए। लेकिन कौटिल्य का सुझाव था कि यदि किसी व्यक्ति को अपनी अत्यधिक कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण किसी व्यक्ति का दास बनने के लिए विवश ही होना पड़े, तो दास बने व्यक्ति के साथ सद्व्यवहार किया जाना चाहिए एवं उसका शोषण नहीं किया जाना चाहिए।


6. व्यापार संबंधी नीति - कौटिल्य ने अपनी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में व्यापार संबंधी नीति का विवेचन राज्य व्यवस्था को ध्यान में रखकर किया है। कौटिल्य इस विचार के समर्थक थे, कि राज्य तभी सुदृढ़ होगा जब उसके कोष में पर्याप्त धन होगा। वे स्वतंत्र व्यापार नीति के समर्थक थे, लेकिन उन्होंने सुझाव दिया था कि व्यापारिक वस्तुओं पर कर अवश्य लगाया जाना चाहिए, क्योंकि इस कर से राजकोष में धन की पर्याप्त पूर्ति को जा सकेगी। 


कौटिल्य का विचार था कि राज्य को वस्तुओं के मूल्यों पर कठोर नियंत्रण रखना चाहिए, ताकि व्यापारी उपभोक्ताओं से अधिक मूल्य वसूल कर उनका शोषण न कर सके कौटिल्य के मतानुसार राज्य को परिवहन के साधनों का समुचित विकास करना चाहिए, ताकि व्यापार को विकसित करने में सहायता प्राप्त हो सके।


7. व्याज दर का नियमन - कौटिल्य का विचार था कि राज्य को ब्याज दर का नियमन करते रहना चाहिए। उनके मतानुसार व्याज की दर सामान्यतया 15 प्रतिशत होनी चाहिए। लेकिन व्यापारी वर्ग से 15 प्रतिशत से भी अधिक ब्याज प्राप्त किया जा सकता है।


8. श्रम कल्याण - कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्रा में श्रम कल्याण के संबंध में भी विचार व्यक्त किए हैं। उनका विचार था कि श्रमिक के पारिश्रमिक की दरें समय, स्थान एवं दशाओं को ध्यान में रखकर निश्चित की जानी चाहिए। कौटिल्य चाहते थे कि श्रमिकों की मजदूरी न्यूनतम जीवन निर्वाह सिद्धान्त के अनुसार निश्चित किया जाना चाहिए।


9. सामाजिक सुरक्षा - कौटिल्य का विचार था कि राज्य को सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से धमार्थ संस्थाएँ एवं ल दरिद्रालय स्थापित करने चाहिए। वृद्ध और निर्धन व्यक्तियों के लिए आश्रम खोले जाएँ श्रमिकों के हितों की रक्षा होनी चाहिए, उन्हें उचित मजदूरी व छुट्टी, आदि मिलनी चाहिए। समस्त प्राकृतिक साधनों का प्रयोग करने का भार राजा के कंधों पर होना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य सामाजिक सुरक्षा को अधिक महत्व देते थे।


यह भी पढ़े -

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ