प्रो.जे.के. मेहता की अर्थशास्त्र की परिभाषा, विशेषताएँ तथा आलोचनाएँ | J. K. Mehta Definition of Economics in hindi

आवश्यक विहीनता की परिभाषा 


इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. जे. के. मेहता ने भारतीय संस्कृति के अनुरूप दृष्टिकोण अपनाया और उसी के अनुसार उन्होंने अर्थशास्त्र की परिभाषा दी। उनका दृष्टिकोण पाश्चात्य देशों के अर्थशास्त्रियों से सर्वथा भिन्न है। पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों का दृष्टिकोण यह है कि मनुष्य का उद्देश्य अधिक से अधिक संतोष की प्राप्ति है और जो जितनी अधिक आवश्यकताएँ पूरी करेगा, उसे उतना ही अधिक संतोष मिलेगा।


लेकिन प्रो. मेहता पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों से सहमत नहीं हैं। उनके विचार प्राचीन ऋषि-मुनियों और महात्माओं से प्रेरित हैं। हमारी संस्कृति का आदर्श, 'सादा जीवन उच्च विचार' में है। भारतीय मनीषियों ने भी आवश्यकताओं को न्यूनतम रखने पर बल दिया है।


अत: मेहता का विचार है कि अर्थशास्त्र का संबंध आवश्यकताओं की संतुष्टि से नहीं, बल्कि इनको कम रखने और अन्ततः बिल्कुल समाप्त कर देने से हैं, ताकि इच्छा या आवश्यकता विहीनता की अवस्था प्राप्त की जा सके।" धर्म की भाषा में इसे 'निर्वाण' या 'मोक्ष की अवस्था कहते हैं।


प्रो. जे. के. मेहता के अनुसार, - अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो कि आवश्यकता विहीन अवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए एक साधन के रूप में मानवीय अवस्था का अध्ययन करता है ।


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प्रो.जे.के.मेहता

प्रो. जे. के. मेहता के परिभाषा की विशेषताएँ 


1. 'संतुष्टि' और 'सुख' में अन्तर - प्रो. मेहता ने संतुष्टि और सुख में अन्तर किया है। संतुष्टि वह अनुभूति है, जो किसी इच्छा या आवश्यकता के पूरा होने के बाद प्राप्त होती है। जब जक इच्छा की पूर्ति नहीं होती, तब तक कष्ट का अनुभव होता रहता है तथा इच्छा की पूर्ति होते ही मनुष्य को संतुष्टि प्राप्त होने लगती है, लेकिन प्रो. मेहता का विचार है कि यह संतुष्टि एक अस्थायी, दिखावटी तथा नकारात्मक भावना है, क्योंकि जब हम अपनी इच्छाओं को पूरा करते हैं तो हमारा मानसिक असंतुलन थोड़ी देर के लिए दूर हो जाता है तथा उससे हमें क्षणिक संतुष्टि मिलने लगती है, लेकिन नई इच्छाओं के पैदा होते ही यह मानसिक असंतुलन पुनः उत्पन्न हो जाता है, जिससे हमें अपार दुख होता है। इस प्रकार संतुष्टि एक अस्थायी विचार है, जिससे हमें वास्तविक सुख कभी भी नहीं मिल सकता।


इसके विपरीत मनुष्य को वास्तविक सुख उस समय मिलता है, जब उसकी कोई आवश्यकता ही न हो। यह सुख आवश्यकताओं को बढ़ाने से नहीं, बल्कि उनको कम करने से प्राप्त होता है, क्योंकि आवश्यकताएँ जितनी कम होगी, पीड़ा उतनी ही कम होगी। परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला वास्तविक सुख भी उतना ही अधिक होगा। 


प्रो. मेहता का तर्क है कि आवश्यकताएँ पीड़ा की जननी हैं एवं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि दैनिक जीवन में धनी व्यक्ति आवश्यकताओं से घिरे रहने के कारण अधिक दुःखी रहते हैं, जबकि इसके विपरीत निर्धन लोगों को अपनी सीमित आवश्यकताओं के कारण संतुष्टि भले ही कम प्राप्त हो, लेकिन उनका वास्तविक सुख अधिक हुआ करता है। इसलिए प्रो. मेहता का विचार है कि "वास्तविक सुख के लक्ष्य की पूर्ति इच्छाओं को अधिकतम रखने से नहीं, बल्कि कम से कम करने में निहित है।"


2. कष्ट, संतुष्टि एवं आनंद - प्रो. मेहता के अनुसार, किसी व्यक्ति को कोई इच्छा अथवा आवश्यकता के अपूर्ण रहते हुए उसको जो पीड़ा अनुभव होती है, वह कष्ट है। जितनी अधिक एवं तीव्र आवश्यकताएँ अपूर्ण अथवा अतृप्त रहतो हैं, उतना ही अधिक कष्ट उस व्यक्ति को होता है। इसके विपरीत, इच्छा अथवा आवश्यकता की तृप्ति या पूर्ति होने पर व्यक्ति को जो अनुभव होता है, उसे 'संतुष्टि' कहा जाता है। तृप्त की जाने वाली आवश्यकता जितनी अधिक तीव्र होगी, उसके उपभोग से प्राप्त संतुष्टि भी उतनी ही अधिक होगी। प्रो. मेहता ने संतुष्टि के अनुभव को आनंद कहा है।


3. मानसिक असंतुलन और संतुलन - प्रो. जे. के. मेहता ने बताया कि जब तक कोई इच्छा या आवश्यकता मनुष्य के मस्तिष्क में बनी रहती है, उसका मस्तिष्क असंतुलन की अवस्था में रहता है। 


यथार्थ में मनुष्य के मस्तिष्क के संतुलन में बाधा डालने वाली घटना 'इच्छाएँ व आवश्यकताएँ उत्पन्न होना ही है संतुलन के भंग होने पर मनुष्य को 'कष्ट अनुभव होता है और इसलिए वह उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए प्रत्यन करता है। जब आवश्यकता की तृप्ति हो जाती है, तब मनुष्य का मानसिक संतुलन फिर स्थापित हो जाता है और अब जो अनुभव मनुष्य को होता है, वहीं संतुष्टि है और इसी को प्रो. मेहता ने आनंद की संज्ञा दी है।


4. सुख की अवस्था - प्रो. जे. के. मेहता का विचार है कि संतुष्टि या आनंद की अवस्था अस्थायी है, क्योंकि एक इच्छा पूरी हुई नहीं कि कोई नई इच्छा या आवश्यकता जन्म ले लेती है और जितने समय तक वह अतृप्त रहती है, उतने समय तक व्यक्ति का मन विषाद से भरा रहता है अर्थात् वह मानसिक असंतुलन का कष्ट भोगता है। 


आवश्यकताओं का जन्म होता रहता है, कुछ तृप्त होती है और कुछ अतृप्त रहती हैं, जिससे मानव मस्तिष्क सदैव असंतुलन में रहते हुए कष्ट अनुभव करता है। जीवन में विरले ही ऐसे क्षण आते हैं, जबकि मनुष्य समग्र रूप से यह कह सके कि वह आनंद में है। सुख मनुष्य के पूर्ण मानसिक संतुलन का "पूर्ण संतुलन की दशा में मनुष्य सदा के लिए सुख को प्राप्त कर लेता है। उसे कुछ और आनंद नहीं होता, बल्कि यह विशुद्ध सुख' या पूर्ण सुख अनुभव करता है।" 


5. अर्थशास्त्र का लक्ष्य - प्रो. जे. के. मेहता का कहना है कि अर्थशास्त्र के अध्ययन का उद्देश्य मनुष्य को आवश्यकता विहीन अवस्था में पहुंचाना है, क्योंकि तभी वह पूर्ण मानसिक संतुलन में होकर सुख का अनुभव कर सकता है। आवश्यकता विहीन अवस्था एक दिन या एक वर्ष में प्राप्त होने वाली नहीं है। इसके लिए तो आवश्यकताओं को शनैः न घटाने के प्रयास करने होते हैं। इसके लिए तो आवश्यकताओं का दमन करना न तो उचित है और न ही सम्भव है। मनुष्य को चाहिए कि अपने मन को शिक्षित करें और व्यर्थ की आवश्यकताएँ जो कि सुरक्षा के मुख के समान हैं, न पाले। प्रायः इच्छाएँ व आवश्यकताएँ बाह्य शक्तियों के प्रभाव द्वारा उत्पन्न होती हैं, हमारा मन हमें बाह्य शक्तियों के प्रभाव में पड़ने से बचायेगा।


प्रो. जे. के. मेहता की परिभाषा की आलोचनाएँ 


1. परिभाषा का काल्पनिक होना - आलोचकों का विचार है कि प्रो. मेहता की परिभाषा काल्पनिक है और इसका संबंध काल्पनिक व्यक्ति से है, वास्तविक मनुष्य से नहीं। समाज में ऐसा व्यक्ति शायद हो मिले जो अपनी इच्छाओं व आवश्यकताओं का दमन कर मुक्ति चाहता प्रो. मेहता की परिभाषा हो ऐसा व्यक्ति मिल भी जाए तो वह व्यक्ति सामान्य नहीं होगा, क्योंकि सामान्य व्यक्ति तो आवश्यकताओं में वृद्धि कर जीवनस्तर उठाने का प्रयास करता है। यह आलोचना सही प्रतीत होती है।


2. अर्थशास्त्र के महत्व में कमी - अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र से मिलाकर प्रो. मेहता ने उसके महत्व को कम कर दिया है। प्रो. मेहता ने तो अर्थशास्त्र को उसका सही स्थान दिलाया है, उसे नीतिशास्त्र व धर्मशास्त्र से संयुक्त करके सही मार्गदर्शन करने की क्षमता प्रदान की है और समस्याओं के सहज समाधान का मार्ग प्रशस्त किया है।


3. अति ऊँचा आदर्श - आलोचकों का यह भी विचार है कि एक सामान्य मनुष्य क्षणिक या अस्थायी आनंद चाहता है, वह आदर्शों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। प्रो. मेहता ने उससे संयम की अपेक्षा की है, जो संभव नहीं है। (यह आलोचना भी पूर्णतः ठीक नहीं है। आज मनुष्य के अनेकाएक दुःखों और कष्टों का कारण उसका असंयमित व्यवहार ही ती है। यदि असंयमित व्यवहार जारी रहता है, जो दुःख भी जारी रहेगा।


4. आत्मघाती परिभाषा - यदि अर्थशास्त्र आवश्यकता विहीन अवस्था में पहुँचने के लिए सहायता देता है तो फिर आर्थिक समस्याएँ स्वतः सहायता देता है तो फिर आर्थिक समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाएगी अर्थात् जब आवश्यकताएँ नहीं रहेंगी, तो आर्थिक क्रियाएँ बन्द हो जायेंगी, तब अर्थशास्त्री किस विषय का अध्ययन करेगा ? उपर्युक्त आलोचना सही प्रतीत नहीं होती, क्योंकि प्रथम आवश्यकता विहीन अवस्था तो एक आदर्श है। यदि आवश्यकता विहीन अवस्था को आदर्श बनाया जाए, तो अवश्य ही आवश्यकताओं में पर्याप्त सीमा तक कमी की जा सकेगी और उतनी सीमा तक कष्ट में भी कमी हो सकेगी। 


5. सीमित साधनों में वृद्धि की उपेक्षा - प्रो. जे. के. मेहता ने सीमित साधनों में वृद्धि को उपेक्षा की है। आजकल तो सीमित साधनों को बढ़ाकर बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति करके अधिकतम सुख प्राप्त किया जा सकता है। यह आलोचना कुछ हद तक सही प्रतीत होती है। लेकिन अन्त में यह स्वीकार करना पड़ेगा कि साधन तो सीमित ही होते हैं, उन्हें केवल एक सीमा तक ही बढ़ाया जा सकता है।


6. अर्थशास्त्र को केवल आदर्श विज्ञान मानना - प्रो. जे. के. मेहता अर्थशास्त्र को केवल आदर्श विज्ञान के रूप में हो मानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि अर्थशास्त्र व्यावहारिक विज्ञान भी है।


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