आवश्यकता को निर्धारित करने वाले तत्व
मानव जीवन आवश्यकताओं से परिपूर्ण है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव जीवन आवश्यकताओं के जाल में फँसा रहता है। प्रारंभिक काल से ही मनुष्य भोजन, मकान तथा वस्त्र की आवश्यकता का अनुभव होता रहा है, किन्तु मानव सभ्यता के विकास के साथ इसमें भी वृद्धि होती जा रही है। आज के युग में हमारी आवश्यकताओं में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी है कि इनकी पूर्ति करना मनुष्य के लिये असम्भव सा हो गया है।
आवश्यकता |
हमारी आवश्यकताएँ निम्नलिखित बातों या घटकों से प्रभावित होती हैं -
1. भौगोलिक तत्व - आवश्यकताओं पर भौगोलिक वातावरण का प्रभाव पड़ता है। किसी देश के लोगों की आवश्यकताओं पर देश की भौगोलिक स्थिति तथा जलवायु का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ- यूरोप के ठण्डे देशों के लिये ऊनी तथा गरम कपड़े की आवश्यकता होती है, किन्तु भारत में ऊनी कपड़ों की आवश्यकता केवल दो या तीन महीने ही पड़ती है। इस प्रकार आवश्यकताओं में वृद्धि का कारण भौगोलिक वातावरण होता है जिसमें मानव रहता है।
2. शारीरिक तत्व - मानव को अपना जीवन चलाने के लिये प्रारम्भ से कुछ न कुछ आवश्यकताओं का अनुभव होता रहा है। उदाहरणार्थ खाने के लिये भोजन, पहनने के लिये कपड़े या वस्त्र तथा रहने के लिये आवास आदि की आवश्यकतायें प्रारम्भ से ही हैं तथा भविष्य में भी रहेंगी। इसी प्रकार एक 20 वर्ष की आयु के व्यक्ति की आवश्यकताएँ 70 वर्ष की आयु के व्यक्ति से भिन्न पायी जाती हैं। अतएव आवश्यकताएँ शारीरिक तत्वों से भी प्रभावित होती हैं।
3. आर्थिक तत्व - व्यक्ति की आर्थिक स्थिति अर्थात् उसकी आय भी आवश्यकताओं को निर्धारित करती है। प्रायः यह देखा गया है कि एक निर्धन व्यक्ति की आवश्यकता कम होती है तथा यह प्रायः अनिवार्य आवश्यकताओं तक ही सीमित होती है, इसके विपरीत एक अमीर व्यक्ति की आवश्यकताएँ केवल अनिवार्य तक ही सीमित नहीं होती हैं वरन् यह आरामदायक तथा विलासिता सम्बन्धी भी होती हैं। इसलिये कहा जाता है कि एक आदमी उतना ही पैर फैलाता है जितनी लम्बी चादर होती है। इन आर्थिक बातों का भी इन पर प्रभाव पड़ता है।
4. सामाजिक तत्व - मानव की कुछ आवश्यकताएँ सामाजिक कारणों तथा वातावरण से भी उत्पन्न होती यह बात सभी लोगों को पता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जिसका उसके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता है। मानव समाज में रहते हुये इन सामाजिक आवश्यकताओं की अवहेलना या उपेक्षा नहीं कर सकता है। उदाहरणार्थं शादी तथा त्योहार आदि के अवसरों पर सामाजिक रीति-रिवाज का पालन करना पड़ता है। इसीलिये कहा जाता है कि मनुष्य की आवश्यकताओं हैं। प्रायः का मूल कारण सामाजिक बन्धन भी है।
5. धार्मिक तथा नैतिक भावनाएँ - आवश्यकताओं को निर्धारित करने में मनुष्य की धार्मिक तथा नैतिक भावनाओं का भी प्रभाव पड़ता है। प्राय: यह देखा गया है कि कुछ आवश्यकतायें धार्मिक भावनाओं के कारण भी उत्पन्न होती हैं। विभिन्न धर्मों में अन्तर के कारण विभिन्न धर्मावलम्बियों को आवश्यकताओं में भी विभिन्नता पायी जाती है। उदाहरणार्थ कोई शाकाहारी होता है तो कोई माँसाहारी होता है। जिस व्यक्ति का दृष्टिकोण सादा जीवन व्यतीत करना होता है उसकी आवश्यकताएँ कम तथा सीमित होती हैं, इसके विपरीत शान शौकत से जीवन व्यतीत करने वालों की आवश्यकताएँ अधिक होती हैं। इस प्रकार आवश्यकता पर नैतिक व धार्मिक भावनाओं का भी प्रभाव पड़ता है।
6. स्वभाव, आदत, फैशन आदि - मानवीय आवश्यकताओं पर उपभोक्ता की रूचि, आदत तथा स्वभाव व का भी प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी उपभोक्ता किसी वस्तु का आदी होता है तथा इसके बगैर वह रह नहीं पाता है। यह वस्तु उसके लिये अनिवार्य हो जाती है। इसी प्रकार समाज में पाये जाने वाले फैशन व रुचि के कारण भी आवश्यकतायें निर्मित होती हैं यही कारण है कि विभिन्न लोगों की भिन्न-भिन्न प्रकार की आवश्यकतायें पायी जाती हैं। आवश्यकताओं में विभिन्नता का यही कारण होता है, अतः आवश्यकताओं का जन्म रुचि, फैशन व आदत के कारण उत्पन्न होता है।
7. राजनीतिक वातावरण - मानवीय आवश्यकताओं पर राजनीतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ युद्ध तथा शान्ति के समय आवश्यकताओं में विभिन्नता पायी जाती है। जब देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था पायी जाती है तो उत्पादन बढ़ता है तथा आवश्यकताओं में भी वृद्धि होना स्वाभाविक होता है। ऐसी स्थिति में आवश्यकताओं में उथल पुथल होता रहता है, किन्तु जब आन्तरिक वातावरण में असन्तोष होता है तो उत्पादन तथा आवश्यकताएँ दोनों प्रभावित होती हैं। इसी प्रकार बाह्य युद्ध के समय भी यही स्थिति पायी जाती है।
8. ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति - ज्ञान, विज्ञान तथा आविष्कारों का भी हमारी आवश्यकताओं पर प्रभाव पड़ता है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति से नये-नये आविष्कार होते हैं, नवी-नयी वस्तुओं का उत्पादन होता है तथा वस्तुओं की किस्मों में भी सुधार होता है। इन तमाम बातों का प्रभाव हमारी आवश्यकताओं पर पड़ता है। इसीलिये कहा जाता है कि नये-नये आविष्कार हमारी आवश्यकताओं में वृद्धि करने में सहायक होते हैं। इस दिशा में रेडियो, टेलीविजन एवं ट्रांजिस्टर व समाचार पत्र आदि के माध्यम से लोगों के ज्ञान में वृद्धि होती है तथा नई आवश्यकताओं का जन्म होता है।
9. विज्ञापन एवं प्रचार - अन्तिम किन्तु कम महत्वपूर्ण नहीं आज हमारी आवश्यकताओं में वृद्धि करने में विज्ञापन एवं प्रचार का बहुत बड़ा योगदान पाया जाता है। यही कारण है कि वर्तमान समय में वस्तुओं को बाजार में लाने के पहले हो उनका विज्ञापन व प्रचार बड़े पैमाने पर किया जाता है ताकि लोगों द्वारा वस्तुओं की माँग की जाने लगे। इस प्रकार विज्ञापन माँग या आवश्यकताओं के निर्माण में सहायक होता है। इस प्रकार यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान काल विज्ञापन का युग है। आज के व्यावसायिक तथा अन्य क्षेत्रों में दिन प्रतिदिन महत्व बढ़ता जा रहा है।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि आवश्यकताओं की वृद्धि उन्नति का प्रतीक माना जाता है वास्तव में सभ्यता के विकास की कहानी आवश्यकता की वृद्धि की ही कहानी है। देश की आर्थिक सम्पन्नता तब ही होती है जब लोगों की आवश्यकतायें अधिक हों वास्तव में मानव सभ्यता इसी बात पर निर्भर होती है।
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