उत्पादन का अर्थ, परिभाषा, विधियां तथा प्रकार | Production meaning in hindi

आज के इस आर्टिकल में हम उत्पादन के बारे में बात करेंगे, उत्पादन मानव संसाधन के लिए बहुत जरूरी हो गया है इसलिए उत्पादन मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। आज हम उत्पादन का अर्थ, उत्पादन की परिभाषा के साथ उत्पादन की विधियां तथा उत्पादन के साधन के बारे में जानेंगे की उत्पादन क्या होता हैं उत्पादन की कौन कौन सी विधि है यह सब इस आर्टिकल में विस्तार से बताया गया है तो चलिये जानते हैं कि उत्पादन क्या हैं?


उत्पादन का अर्थ


यह एक सर्वमान्य सत्य है कि मानवीय आवश्यकताएँ असीमित हैं तथा इसकी सन्तुष्टि के साधन सीमित पाये जाते हैं। अन्य शब्दों में मानव जीवन आवश्यकताओं के जाल से घिरा हुआ रहता है। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए व्यक्ति को सदैव प्रयत्न करते रहना पड़ता है इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य अपने प्रयासों द्वारा धन का उत्पादन करता है तथा इससे अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है। 


मानव की इन्हीं आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन अर्थशास्त्र के अन्तर्गत उत्पादन में किया जाता है। साधारण बोलचाल की भाषा में उत्पादन का अभिप्राय किसी नवीन वस्तु के निर्माण से लगाया जाता है, किन्तु विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि, “मनुष्य न तो किसी जड़ पदार्थ का सृजन कर सकता है और न संहार ही। 


वास्तव में सृजन तथा संहार दोनों ही मानव के परे है। यह कार्य केवल प्रकृति द्वारा ही किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य न तो किसी वस्तु का निर्माण कर सकता है और न ही उसको नष्ट कर सकता है। वह केवल आकार, समय, स्थान तथा सेवाओं के माध्यम से वस्तु को पहले से उपयोगी बना सकता है। 


प्रो. पेन्सन का कथन है कि - "उत्पादन का अर्थ किसी पदार्थ का निर्माण करना ही नहीं, वरन् इसका अर्थ वस्तु में मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने की योग्यता, क्षमता या गुणों में वृद्धि करना है।" 


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उत्पादन

उत्पादन की परिभाषा 


प्रो. ऐली का मत है कि, - “आर्थिक उपयोगिता का सृजन ही उत्पादन है। 


प्रो. फेयर चाइल्ड के शब्दों में, - “सम्पत्ति को अधिक उपयोगी बनाना ही उत्पादन है।


प्रो. टामस के अनुसार, - “वस्तु में मूल्य का सृजन करना उत्पादन कहलाता है। 


उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उत्पादन का आशय किसी नवीन वस्तु के निर्माण से नहीं होता है बल्कि विद्यमान वस्तुओं को पहले से अधिक उपयोगी बनाने से होता है। 


इसीलिए उपयोगिता का सृजन करना ही उत्पादन कहा जाता है, किन्तु यहाँ पर उल्लेखनीय बात यह है कि उत्पत्ति तथा उपभोग की क्रियाओं में अन्तर किया जाना कठिन कार्य है। प्रत्येक कार्य में उत्पादन तथा उपभोग दोनों ही क्रियाएँ पाई जाती हैं।एक टेलर कपड़े को काटकर शर्ट बनाता है तो कपड़े की उपयोगिता बढ़ जाती है, तथा इसका यह कार्य उत्पादन कहलाता है, परन्तु दूसरी ओर टेलर कपड़े को नष्ट करके उपभोग का भी कार्य करता है, इसीलिए कहा जाता है कि उत्पत्ति तथा उपभोग एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। 


प्रो. जे. के. मेहता के अनुसार, - “आवश्यकता की प्रत्यक्ष सन्तुष्टि उपभोग है जबकि परोक्ष सन्तुष्टि उत्पादन है। इस उपभोग तथा उत्पादन दोनों ही मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।" 

उत्पादन करने की विधियाँ 


वर्तमान समय में उपयोगिता निर्माण करने की निम्नलिखित विधियाँ पाई जाती हैं -


1. रूप परिवर्तन द्वारा - जब किसी वस्तु के रूप या आकार में परिवर्तन करके उसकी उपयोगिता में वृद्धि की जाती है, तो इसे रूप या आकार परिवर्तन द्वारा उत्पादन कहा जाता है। उदाहरणार्थ जब एक बढ़ई द्वारा लकड़ी को काट छाँटकर मेज कुर्सी तैयार की जाती है, तो उसे उत्पादक तथा उसके इस कार्य को उत्पादन कहा जाता है। इसी प्रकार टेलर, कुम्हार, किसान आदि के कार्यों को भी उत्पादन कहा जाता है।


2. स्थान परिवर्तन द्वारा - कोई वस्तु किसी स्थान पर अधिकता के कारण कम उपयोगी है, किन्तु जब उन्हें अभाव वाले स्थान पर ले जाया जाता है, तो उसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। इसे स्थान परिवर्तन द्वारा उत्पादन कहा जाता है। उदाहरणार्थ जब एक घसियारा जंगल से घास काटकर उसे बाजार में बेचता है, तो उसको पहले से अधिक उपयोगिता होती है। उसके इस कार्य को स्थान परिवर्तन द्वारा उत्पादन कहा जाता है। 


3. समय परिवर्तन द्वारा - जब वस्तुओं को कुछ समय तक संचय करके रखने से वस्तुओं की उपयोगिता में वृद्धि हो जाती है, तो इसे समय परिवर्तन द्वारा उत्पादन करना कहा जाता है। धान, गुड़ तथा शराब जितनी ही पुरानो होती है, उतनी ही ये वस्तुएँ अधिक उपयोगिता रखती हैं। प्रायः व्यापारियों द्वारा इसी प्रकार की उपयोगिता का सृजन किया जाना उत्पादन कहा जाता है, तथा उन्हें उत्पादक कहा जाता है। वे इससे लाभ प्राप्त करते हैं।


4. अधिकार परिवर्तन द्वारा - जैसे-जैसे किसी व्यक्ति के पास वस्तुओं की अधिकाधिक इकाइयाँ बढ़ती जाती हैं, उनसे प्राप्त हेने वाली उपयोगितायें कम होती जाती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जब किसी वस्तु की उपयोगिता में वृद्धि अधिकार परिवर्तन द्वारा की जाती है, तो उसे अधिकार उपयोगिता सृजन कार्य कहा जाता है। एक सब्जी विक्रेता को अपनी वस्तु से उतनी उपयोगिता प्राप्त नहीं होती है जितनी कि एक उपभोक्ता को सब्जी से उपयोगिता प्राप्त होती है।


5. सेवा परिवर्तन द्वारा - सेवा परिवर्तन द्वारा उपयोगिता सृजन से तात्पर्य उस उपयोगिता से होता है, जो व्यक्तियों की सेवाओं से उत्पन्न होती है। जब कभी उपयोगिता का निर्माण इस प्रकार की सेवाओं द्वारा उत्पन्न किया जाता है, जिसमें किसी भौतिक वस्तु का उत्पादन नहीं होता है, तो इसे सेवा द्वारा उत्पादन करना कहा जाता है। इस दृष्टि से डॉक्टर, वकील, नर्से, गायक, नौकर, नौकरानी आदि अपनी सेवाओं द्वारा उपयोगिता का सृजन करते हैं।


6. ज्ञान वृद्धि द्वारा - जब विभिन्न वस्तुओं के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करके उसकी उपयोगिता में वृद्धि की जाती है, तो इसे ज्ञान वृद्धि द्वारा सृजन या उत्पादन कहा जाता है। वर्तमान समय में विज्ञापन द्वारा उपभोक्ताओं को विभिन्न वस्तुओं के गुणों का ज्ञान होता है। इस प्रकार वस्तुएँ उपभोक्ताओं के लिये उपयोगी बन जाती हैं। यही कारण है कि शिक्षक, लेखक, प्रचारक तथा विज्ञापन आदि को उत्पादक कहा जाता है।


इस प्रकार कहा जा सकता है कि रूप परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, समय परिवर्तन, अधिकार परिवर्तन, सेवा द्वारा तथा ज्ञान के द्वारा मानव उपयोगिता का सृजन करता है। अन्य शब्दों में उपर्युक्त विधियों के द्वारा वर्तमान समय में उत्पादन किया जाता है। 


इसीलिए केवल किसान, श्रमिक ही उत्पादक नहीं होते हैं वरन् शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि भी उत्पादक को श्रेणी में आते हैं। अतएव प्रो. पेन्सन के शब्दों में कहा जा सकता है कि - मनुष्य अनेक रीतियों से किसी वस्तु को मानव आवश्यकताओं को पूरा करने वाली शक्ति या गुण में वृद्धि करता है और उसकी इन सब क्रियाओं के फलस्वरूप धन का उत्पादन होता है।


उत्पादन के साधन 


धन का उत्पादन विभिन्न साधनों के सहयोग से किया जाता है। अतएव धन या सम्पत्ति के उत्पादन में जो सहयोग प्रदान करते हैं, उन्हें ही उत्पादन के साधन कहा जाता है। अन्य शब्दों में जिन वस्तुओं या सेवाओं के सहयोग से धन का उत्पादन होता है, उन्हें उत्पादन के साधन कहा जाता है। 


प्रो. वेन्हम के शब्दों में, - “कोई भी वस्तु जी उत्पादन के कार्य में सहयोग प्रदान करती है उत्पादन का साधन है।" 


1. भूमि (Land) - भूमि उत्पादन का अत्यन्त अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण साधन माना जाता है। इसके बिना उत्पादन हो नहीं किया जा सकता है। अर्थशास्त्र में भूमि का उपयोग व्यापक अर्थ में किया जाता है। इसका आशय उन समस्त प्राकृतिक निःशुल्क उपहारों से होता है, जिन्हें प्रकृति ने मानव को उत्पादन में सहयोग देने के लिये प्रदान किया है। 



डॉ. मार्शल के शब्दों में, - "भूमि का अर्थ पृथ्वी की ऊपरी सतह से नहीं वरन् उन सभी पदार्थों एवं शक्तियों से हैं जिसे प्रकृति ने भूमि, वायु, प्रकाश तथा गर्मी के रूप में मानव की सहायता के लिये बिना मूल्य प्रदान किया है। इस प्रकार भूमि के अन्तर्गत भूमि, वायु, नदी, समुद्र, पहाड़, प्रकाश, तापक्रम, वर्षा, जलवायु, मौसम तथा खनिज पदार्थ को सम्मिलित किया जाता है। अतएव सारांश में भूमि में समस्त प्रकृति की निःशुल्क देने को सम्मिलित किया जाता है।


2. श्रम (Labour) - श्रम आर्थिक क्रियाओं के संचालन का द्वितीय महत्वपूर्ण साधन है। किसी भी उत्पादन कार्य में श्रम का सहयोग अत्यन्त अनिवार्य होता है। श्रम का आशय मनुष्य के उन समस्त शारीरिक एवं मानसिक प्रयासों से होता है जो धन के उत्पादन के उद्देश्यों से किया जाता है। 


प्रो. जेवन्स के शब्दों में - अर्थशास्त्र में श्रम से मनुष्य के उन सभी शारीरिक एवं मानसिक प्रयत्नों से बोध होता है, जो धनोत्पादन के दृष्टिकोण से किये जाते हैं। चूँकि मानवीय श्रम ही भूमि को उत्पादन कार्य में उपयोग करता है, इसीलिये श्रम को उत्पादन का सक्रिय साधन कहा जाता है। इसमें केवल मानवीय श्रम को सम्मिलित किया जाता है।


3. पूँजी (Capital) - वर्तमान व्यापारिक एवं औद्योगिक युग में पूँजी का उत्पादन के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान पाया जाता है। इसे उत्पादन का अनिवार्य साधन नहीं माना जाता है। पूँजी का उपयोग अर्थशास्त्र में व्यापक अर्थ में किया जाता है। भूमि के अतिरिक्त जो भी वस्तुएँ धन के उत्पादन में सहयोग प्रदान करती हैं, पूँजी कही जाती हैं। 


प्रो. फिशर के अनुसार - पूँजी धनोत्पादन का वह भाग है, जो और अधिक धन के उत्पादन में सहायक होता है।" इस प्रकार पूँजी के अन्तर्गत कच्चे माल या पदार्थ, मशीन यंत्र, हल बैल आदि को सम्मिलित किया जाता है। इसीलिये कहा जाता है कि पूँजी मनुष्य के पिछले श्रम के फल का वह भाग है, जो और आगे उत्पत्ति करने के लिये उपभोग किया जाता है। 


प्रो. टामस के शब्दों में, - "पूँजी संचित श्रम है।"


4. संगठन या व्यवस्था (Organization) - भूमि उत्पादन का निष्क्रिय साधन माना जाता है। भूमि स्वयं कुछ नहीं उत्पादन कर सकती है। श्रम के माध्यम से ही इसको उत्पादन कार्य में उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार श्रम के उपयोग के लिये पूँजी की भी आवश्यकता पड़ती है। इन तीनों साधनों के सर्वोत्तम व उचित उपयोग के लिये संगठनकता भी या व्यवस्थापक की आवश्यकता पड़ती है। 


इसीलिये कहा जाता है कि संगठन का अभिप्राय उत्पादन के उस साधन से होता है, जो भूमि, श्रम तथा पूँजी को उचित अनुमान में मिलाकर उत्पादन का कार्य करता है। यही कारण है कि आज को अर्थव्यवस्था में संगठन aया व्यवस्था का उत्पादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान होता है।


5. साहस (Enterprise) - साहस या जोखिम को भी उत्पादन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन माना जाता है। यह उत्पत्ति को अनिश्चितता या जोखिम को वहन करने का कार्य करता है। यह बात कहना गलत न होगा कि आज उत्पत्ति के कार्य में पग-पग पर जोखिम पाया जाता है। इसके बिना उत्पादन कार्य सम्भव नहीं हो सकता है। इन जोखिमों को जो वह करता है उसे अर्थशास्त्र की भाषा में साहसौ या जोखिम वहनकर्ता कहा जाता है। आधुनिक उत्पादन प्रणाली में विभिन्न प्रकार के जोखिम पाये जाने के कारण साहसी का कार्य तथा महत्व अत्यन्त उपयोगी माना जाता है।


इस प्रकार उत्पादन के उपर्युक्त पाँच साधन- भूमि, श्रम, पूँजी, प्रबन्ध तथा साहस पाये जाते हैं। इन साधनों के सहयोग से ही वर्तमान समय में उत्पादन कार्य किया जाता है। इनमें आपस में पारस्परिक तथा घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।


आशा करता हूँ आपको यह पोस्ट जरूर पसंद आयी होंगी अगर आयी तो जरूर अपने दोस्तों के साथ साझा करें। आपने जैसा कि जाना उत्पादन क्या होता है तथा उत्पादन के साधन कौन कौन से है, यह सब आप अब अच्छे से जानते होंगे।


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