मूलभूत लेखांकन की अवधारणाएँ | Concept of Accounting in hindi

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 लेखांकन की अवधारणा

अवधारणाएँ से आशय उन मान्यताओं एवं शर्तों से है, जिन्होंने लेखांकन सिद्धान्तों के निर्माण को आधार प्रदान किया है। कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाएँ निम्न हैं-


लेखांकन की आधारभूत मान्यताएँ या अवधारणाएँ 


1. लेखांकन की आधारभूत मान्यता


1. व्यवसाय की पृथक इकाई की अवधारणा -


व्यवसाय एवं स्वामी का अस्तित्व अलग-अलग है। व्यवसाय एक स्वतंत्र इकाई है। व्यवसाय का अस्तित्व व्यवसाय के स्वामी, लेनदारों इत्यादि से भिन्न है। 


इसी कारण व्यवसाय में व्यवसायी द्वारा लगायी गयी पूँजी, व्यवसाय के लिए दायित्व मानी जाती है और इसी कारण व्यवसायी जब व्यापार से निजी प्रयोग हेतु माल अथवा रोकड़ निकालता है, तो इसे आहरण माना जाता है। 



एकाकी व्यापार एवं साझेदारी में इस अवधारणा को नहीं माना जाता है। वहाँ पर व्यवसाय व स्वामी का अस्तित्व एक ही माना जाता है किन्तु संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी की दशा में यह अवधारणा लागू होती है। 


2. सतत् व्यवसाय अवधारणा -


इस अवधारणा के अनुसार व्यवसाय उस समय तक निरन्तर चलता रहेगा जब तक व्यवसायी दिवालिया नहीं हो जाता अथवा व्यापार समापन की स्थिति नहीं आ जाती। इस मान्यता के अनुसार व्यवसाय का जीवन अनिश्चितकाल तक चलता रहेगा। 


एक सीमित दायित्व वाली कम्पनी में अनेक अंशधारियों के प्रवेश करने पर व उनके व्यवसाय से अलग होने पर कम्पनी के अस्तित्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता और उसका व्यवसाय निरंतर चलता रहता है। इस अवधारणा से महत्वपूर्ण लाभ यह है कि यह व्यवसाय को स्थिरता एवं सतत्ता प्रदान करता है जिससे दीर्घकालीन निवेशक धन लगाने के लिए उत्साहित रहते हैं। 



यह अवधारणा संपत्तियों के मूल्यांकन में काफी सहायता प्रदान करता है। इसी अवधारणा के अनुसार स्थायी संपत्तियों का क्रय किया जाता है, क्योंकि यह सम्पत्तियाँ व्यवसाय में लम्बे समय तक प्रयोग की जाती है।


3. मुद्रा मूल्यांकन अवधारणा - 


मुद्रा मूल्यांकन की अवधारणा से आशय केवल ऐसे सौदों एवं व्यवहारों के लेखा करने से है। जिनका मापन मुद्रा में किया जा सके। इस प्रकार कहा जा सकता है कि व्यवसाय की ऐसी क्रियाएँ व्यवहार अथवा घटनाएँ जिनका मापन मुद्रा में किया जा सके लेखांकन की विषय सामग्री है। यहाँ मुद्रा से तात्पर्य सम्बन्धित देश की प्रचलित मुद्रा से है।


4. लेखांकन अवधि अवधारणा -


व्यवसाय के अनिश्चित काल की अवधारणा की तरह लेखांकन के अनिश्चित काल की अवधारणा नहीं अपनाई जा सकती है। व्यवसाय के हित के लिए समय-समय पर उसकी आर्थिक स्थिति, कार्य स्थिति, लाभ-हानि की स्थिति का मूल्यांकन आवश्यक है ताकि समय-समय पर व्यवसाय के विभिन्न पक्षकारों को व्यवसाय की आर्थिक स्थिति के संबंध में जानकारी दी जा सके। 


भारतीय कम्पनी अधिनियम के अनुसार एक लेखांकन अवधि अधिकतम 18 माह तक ही हो सकती है किन्तु सामान्यतः लेखांकन अवधि 12 माह तक की होती है। यह 12 माह की अवधि प्रायः 1 अप्रैल से अगले वर्ष की 31 मार्च तक ही होती है। सामान्यतः 1 अप्रैल से 31 मार्च की अवधि को उद्योगों में वित्तीय वर्ष इसलिए अपनाया गया है, क्योंकि इस अवधि की आय पर आयकर की गणना की जाती है।


5. उपार्जन की अवधारणा -


इस अवधारणा के अनुसार आय व व्ययों का लेखा पुस्तकों में तभी किया जाता है जबकि वे देय हो जाती है। इस प्रकार यदि चालू वर्ष का कोई व्यय है किन्तु अभी तक नकद चुकाया नहीं गया है, तो उसे चालू वर्ष के लाभ अथवा हानि निर्धारण हेतु लिया जाएगा। इसी प्रकार यह नियम आय संबंध में भी लागू होगा।


6. साक्ष्य की अवधारणा -


इस अवधारणा के अनुसार व्यापारिक व्यवहारों एवं सौदों का लेखा करते समय उनसे संबंधित उचित साक्ष्य या प्रमाण अवश्य देखना चाहिए। इन साक्ष्यों व प्रमाणों को पुष्टि व्यापारिक प्रपत्रों से होनी चाहिए। जैसे—बोजक, विक्रय, वितरण पत्र, व्यवहार, बिल, रसीदें या प्रमाणक इत्यादि। 



इस अवधारणा के अनुसार कहा जाता है कि प्रत्येक व्यापारिक प्रपत्रों का लेखा, लेखा पुस्तकों में हो और प्रत्येक लेखा का एक प्रमाण-पत्र हो (Every voucher should have a transaction and every transactions should have a voucher) ये प्रपत्र न सिर्फ लेखा करते समय सहायक है अपितु अंकेक्षण के समय ये प्रपत्र अंकेक्षक के पास प्रस्तुत करने होते हैं।  


2. महत्वपूर्ण अवधारणा


1. लागत अवधारणा -


इस अवधारणा के अनुसार व्यवसाय की सम्पत्तियों का मूल्यांकन अथवा लेखा उनके लागत मूल्य (Cost of Purchase) अर्थात् जिस पर ये संपत्तियाँ खरीदी गयी है के आधार पर करनी चाहिए। बाजार में प्रचलित मूल्यों का इनके वास्तविक मूल्यों से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि बाजार मूल्य (Market value) हमेशा उच्चवाचित (Fluctuate) होता रहता है। 


अतः चिट्ठे में संपत्तियों का लेखा करते समय लागत मूल्य ध्यान में रखा जाता है एवं ह्रास को गणना भी लागत मूल्य के आधार पर किया जाता है। 


2. आय प्राप्ति की अवधारणा -


इस अवधारणा के आधार पर आय/लाभ उस समय तक अर्जित नहीं माना जा सकता जब तक कि वस्तुओं व सेवाओं की वास्तविक बिक्री नहीं हो जाती वास्तविक बिक्री से आशय वस्तुओं/सेवाओं एवं प्रतिफल के हस्तांतरण से है अर्थात् वस्तुओं के वास्तविक विक्रय के पश्चात् ही आय की गणना की जायेगी।


3. द्विपक्षीय अवधारणा -


इस अवधारणा के अनुसार प्रत्येक व्यवहार अथवा सौदा दो पक्षों को प्रभावित करता है। ये दोनों पक्ष हैं-डेविट एवं क्रेडिट व्यवसाय के सभी व्यवहार अथवा सौदे इसी अवधारणा के आधार पर लेखांकित किये जाते हैं। 



इसी अवधारणा के आधार पर दोहरा लेखा प्रणाली (Double Entry System) का जन्म हुआ डेबिट पक्ष संपत्तियों को दर्शाता है एवं क्रेडिट पक्ष दायित्वों का प्रतिनिधित्व करता है। दोनों पक्ष एक-दूसरे के बराबर होते हैं, क्योंकि व्यापारिक संस्था के पास जितनी सम्पत्तियाँ होती हैं उतने हो दायित्व होते हैं।


4. आय व व्यय के मिलान की अवधारणा - 


इस अवधारणा के अनुसार सही लाभ-हानि के निर्धारण हेतु यह आवश्यक है कि आयःव व्ययों का ठीक प्रकार से मिलान किया जाये तथा इन आय-व्ययों में केवल उन्हें ही शामिल किया जाय जो चालू वर्ष से संबंधित हो अर्थात् ऐसे आय-व्यय जो कि गत वर्ष को अथवा आने वाले वर्ष से संबंधित हो उन्हें चल वर्ष के आय-व्यय में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।


5. पूँजी की अवधारणा -


इस अवधारणा के अनुसार पूँजी का लेखा अलग से किया जाना चाहिए। एकाकी व्यापार एवं साझेदारी व्यवसाय में जो भी लाभ होता है उसे पूँजी खाते में हस्तांतरित कर दिया जाता है। लेकिन सीमित पूँजी वालो कम्पनी में लाभ को पूँजी खातों में हस्तांतरित नहीं किया जाता, क्योंकि यह लाभ अंशधारियों के लिए आय होती है।


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