लेखांकन सिद्धान्त का आशय
सिद्धान्त से आशय सामान्य नियमों से होता है जो व्यवहारों की दिशा का निर्देश देने में सहायक होता है। सिद्धान्त व्यवहारों की वह दशा प्रकट करते हैं जिनमें परिवर्तन करना सम्भव नहीं होता। लेखांकन के सिद्धान्त वे सिद्धान्त है जो लेखांकन के समय व्यवहारों को सही दिशा निर्देशित करते हैं।
लेखांकन के सिद्धान्त लेखांकन हेतु ऐसे मानक प्रतिपादित करते हैं जो कि किसी भी व्यावसायिक उपक्रम की वित्तीय एवं परिचालन स्थिति की सही एवं वास्तविक दशा प्रस्तुत करते हैं। लेखांकन के सिद्धान्त विज्ञान के सिद्धान्तों की तरह सार्वभौमिक नहीं है लेखांकन के सिद्धान्तों का विकास लेखापालकों द्वारा आवश्यकता अनुभव तथा प्रयोग के आधार पर किया गया है।
इस प्रकार लेखांकन के सिद्धान्त में वैयक्तिकता (Subjectivity) पायी जाती है। यह नियम एवं सिद्धान्त सामान्यतः स्वीकृत सिद्धान्त है अतः इन्हें सार्वभौमिक सिद्धान्तों के स्थान पर सामान्यतः स्वीकृति प्राप्त सिद्धान्त (Generally accepted accounting principles) कहा जा सकता है।
लेखांकन के सिद्धान्तों में लोचता पायी जाती है इसका प्रमुख कारण एक ही प्रकार के व्यावसायिक व्यवहारों के लिए कई वैकल्पिक रीतियों का प्रयोग किया जाता है इसी कारण लेखांकन सिद्धान्तों में आवश्यकता पड़ने पर परिवर्तन किया जा सकता है।
जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान के सिद्धान्तों की सत्यता की जाँच के लिए एक निर्धारित मापदण्ड बनाए गए हैं, इस प्रकार के मानदण्डों का लेखांकन सिद्धान्तों के संदर्भ में अभाव है। यही कारण है कि लेखांकन के सिद्धान्तों को सार्वभौमिक (Universal) न कहकर सामान्यतः स्वीकृत (General accepted) कह सकते हैं।
लेखांकन सिद्धांत की विशेषता
1. मनुष्यकृत सिद्धान्त (Man-made principles)
लेखांकन के सिद्धान्त मनुष्यों द्वारा बनाए गये हैं। मानव अपनी विवेकशीलता, ज्ञान, आवश्यकता, तर्क एवं प्रयोग के आधार पर इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है।
2. तीन तत्वों की मान्यता (Satisfying three elements)
इन सिद्धान्तों की सर्वमान्यता के लिए तीन तत्वों का होना अनिवार्य है-
(1) औचित्य (Relevance)
(ii) उद्देश्यपूर्णता (Objectivity)
(iii) व्यवहार्यता (Feasibility)
औचित्य से तात्पर्य है कि लेखांकन इस प्रकार की सूचनाएँ प्रदान करे जो कि आवश्यक हो एवं जो उद्देश्यों की पूर्ति कर सकें अन्यथा सिद्धान्तों का कोई औचित्य नहीं है। उद्देश्यपूर्णता से आशय यह है कि लेखांकन के सिद्धान्तों में वैयक्तिकता (Subjectivity) नहीं होनी चाहिए अर्थात् यह व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
व्यवहार्यता से आशय है कि सिद्धान्तों का बिना किसी दुविधा जटिलता के साथ प्रयोग ताकि अतिरिक्त श्रम, लागत एवं समय न लगे। इस प्रकार सिद्धान्तों में इन तीनों लक्षणों का होना अनिवार्य है, किन्तु कुछ परिस्थितियों में इन सिद्धान्तों में उपर्युक्त तत्वों में से सभी तत्व नहीं पाये जाते और इन सिद्धान्तों को सामान्य स्वीकृति के आधार पर सिद्धान्त मान लिया जाता है।
3. प्रगतिशीलता ( Progressive)
लेखांकन सिद्धान्तों में समय एवं विकासशील (Developing) परिस्थितियों के अनुसार प्रगतिशीलता भी पाई जाती है। इन सिद्धान्तों पर विभिन्न प्रथाओं, पद्धतियों, रीतिरिवाजों का प्रभाव पड़ता है।
4. विस्तृत सूची का अभाव (Lack of broad list)
लेखांकन सिद्धान्तों के विस्तृत सूची उपलब्ध नहीं होते लेखांकन सिद्धान्तों पर स्थान विशेष व समय विशेष का प्रभाव पड़ता है।
लेखांकन के आधारभूत सिद्धान्त
1. द्विपक्षीय सिद्धान्त -
इस सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक व्यावसायिक व्यवहारों के दो स्वरूप होते हैं, जिनमें प्रथम पक्षकार प्राप्तकर्ता तथा दूसरा पक्षकार देयता होता है। प्रभावित दोनों पक्षों के खातों में से एक का खाता विकलन (Debit) तथा दूसरी का खाता समाकलन (Credit) होता है।
जैसे - राजेश ने 10,000 रुपये से व्यापार प्रारंभ किया। इस व्यवहार में एक पक्ष रोक तथा दूसरा पक्षकार रोकड़ लगाने वाला राजेश होगा जहाँ एक ओर रोकड़ संपत्ति तथा दूसरे ओर यह रोकड़ पूँजी के रूप में व्यापार का दायित्व माना जाएगा।
अतः व्यवहार का समीकरण होगा
संपत्ति (Assets) = दायित्व (Liabilities)
सम्पूर्ण व्यावसायिक व्यवहारों या लेन-देनों को भी मान्यता या सिद्धांत के आधार पर लिखा जाता है। लेखाकर्म की दोहरा लेखा प्रणाली का जन्म इसी सिद्धांत के आधार पर हुआ। इसी सिद्धांत के कारण स्थिति विवरण (Balance sheet) के संपत्ति एवं दायित्व पक्ष का योग सदैव समान रहता है।
2. जाँच करने योग्य बाह्य प्रमाण व सिद्धान्त -
इस सिद्धान्त के अनुसार बहियों में अभिलेखित या लिखे गये प्रत्येक व्यावसायिक व्यवहारों का लिखित प्रमाण होना आवश्यक है। ये लिखित प्रमाण होते हैं जैसे- बीजक, बिल या कैश मेमो, प्रमाणक पत्र-व्यवहार, अनुबंध पत्र प्राप्त एवं देय विपत्र आदि। लिखित प्रमाणकों के आधार पर सत्यता की जाँच संभव है।
3. ऐतिहासिक लागत का सिद्धान्त -
यह सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि आने वाले वर्षों में व्यवसाय हेतु क्रय की गयी संपत्तियों का लेखांकन उसके लागत मूल्य अथवा क्रय मूल्य के आधार पर किया जाना चाहिए।
संपत्ति के प्रयोग के अनुसार हास का प्रावधान भी किया जा सकता है, किन्तु इस तरह के प्रावधानों का आधार संपत्ति का लागत मूल्य ही होगा किन्तु स्टॉक तथा नियोग जैसो दशा में संपत्ति का लेखांकन परिवर्तित आधार पर किया जा सकेगा। मूल्य के
4. आगम निर्धारण का सिद्धांत -
आगम से आशय व्यावसायिक क्रियाओं विक्रय के माध्यम से प्राप्तियों से है। यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि वस्तुओं एवं सेवाओं के विक्रय करने पर प्राप्ति की अवधि किसे और कब माना जाय ? सेवाओं की दृष्टि से आगम की अवधि सेवा उपलब्ध करने की अवधि को माना जाता है, किन्तु भौतिक वस्तुओं की दृष्टि से आगम प्राप्ति के अवधि के निर्धारण में अनेक व्यावहारिक कठिनाईयाँ उत्पन्न होती है।
वस्तु के क्रय हेतु आदेश देने विक्रय अनुबंध पर हस्ताक्षर, वस्तु की सुपुर्दगी तथा भुगतान को अवधि भिन्न-भिन्न होती है आगम प्राप्ति की तिथि वह तिथि होती है जिस तिथि में वस्तुओं की सुपुर्दगी क्रेता को किया जाता है।
आगम प्राप्ति का संबंध नगद भुगतान से नहीं होता उधार विक्रय की स्थिति में वस्तु को सुपुर्दगी के पश्चात् क्रेता वैधानिक रूप से भुगतान के लिए उत्तरदायी हो जाता है। दीर्घकालीन विक्रय अनुबंध की स्थिति में सम्पूर्ण विक्रय राशि को आगम मान लिया जाता जो अनेक व्यावहारिक समस्याओं को जन्म देता है। अतः ऐसी दशा में लेखांकन अवधि में पूर्ण किये गये विक्रय अनुबंध के आनुपातिक आधार पर आगम का निर्धारण कर लिया जाता है।
5. मिलान सिद्धान्त -
यह सिद्धांत लेखांकन अवधि में व्यवसाय द्वारा अर्जित आगम एवं किये गये व्ययों के लेखांकन संबंधी नियमावली को स्पष्ट करता है। लेखांकन अवधि में प्राप्तियों तथा किये गये व्ययों का निर्धारण किया जाना चाहिए एवं अवधि के आधार पर ही इनका लेखांकन किया जाना चाहिए। आगम एवं व्ययों के मिलान के समय निम्नलिखित तथ्य महत्वपूर्ण है।
(1) लाभ-हानि खाते में जब आगम के किसी मंद को आय पक्ष लिखा जाता है तो उस आगम को अर्जित करने से संबंधित सम्पूर्ण व्यय के मदों को खाते के व्यय पक्ष में लिखा जाना चाहिए चाहे इन व्ययों का नगद भुगतान किया गया हो या अदत हो।
(II) जब आगामी वर्ष में से संबंधित आगम के व्ययों का भुगतान चल वर्ष में किया गया हो तो इन्हें चल वर्ष के चिट्ठे (Balance sheet) के संपत्ति पक्ष में पूर्ण दत्त व्यय (Prepaid expenses) के रूप में प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
(ii) वर्ष के अंत में बचे हुए माल के स्कंध (Closing stock) को सम्पूर्ण लागत को आगामी वर्ष का लागत व्यय मानकर बहियों में प्रदर्शित किया चाहिए।
(iv) ऐसे व्ययों जो चल वर्ष के प्राप्तियों या आगम से संबंधित है तथा जिनका भुगतान आगामी वर्ष में किया जाना है इन व्ययों को चल वर्ष के चिट्ठे (Balance sheet) के दायित्व पक्ष में अदत्त दायित्व के (Outstanding expenses) रूप में प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
6. पूर्ण प्रकटीकरण का सिद्धान्त -
पूर्ण प्रकटीकरण सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि वित्तीय व्यवहारों के आधार पर वित्तीय स्थिति, लाभ हानियाँ, साख की स्थिति एवं भविष्य की वित्तीय कठिनाइयाँ का पूर्ण प्रकटीकरण लेखांकन के द्वारा किया जाये, ताकि भविष्य की नीति निर्धारण में इन सूचनाओं के माध्यम से उचित निर्णय लिया जा सके।
लेखांकन के परिवर्तनीय सिद्धान्त
लेखांकन के कुछ सिद्धान्त में आवश्यकतानुसार संशोधन या परिवर्तन किया जा सकता है। लेखांकन की विश्वसनीयता या संशोधित सिद्धान्त भी कहा जा सकता है ये सिद्धांत निम्नानुसार है
1. सारता (Materiality) -
इस सिद्धान्त के अनुसार लेखांकन कार्यों में उन्हीं तथ्यों को प्रदर्शित किया जात महत्वपूर्ण है एवं वित्तीय व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं जो सूचनाएँ महत्वहीन हैं उन्हें छोड़ दिया जाता है। तथ्यों या सू की महत्ता परिस्थितियों पर निर्भर करती है। कोई सूचना विशेष किसी परिस्थिति में महत्वपूर्ण होती है तो दूसरी प महत्वहीन ।
अतः वित्तीय विवरणों के निर्माण एवं प्रस्तुतिकरण के समय इन तथ्यों का विशेष ध्यान रखा जाना आवश अन्यथा वित्तीय विवरणों पर अनावश्यक भार पड़ेगा। वित्तीय विवरणों के निर्माण के समय महत्वपूर्ण मदों को ही महत्व जाना चाहिए, जिनका निर्धारण व्यवसाय के आकार, प्रकृति, उद्देश्य व्यय तथा प्रबंध संबंधी तथ्यों आदि पर निर्भर क
2. संगतता (Consistency) -
इस सिद्धान्त के अनुसार लेखांकन प्रथाएँ, लेखांकन सिद्धान्तों का आधार हैं प्रथाओं के आधार पर ही वित्तीय विवरणों को बनाया जाता है। कुछ महत्वपूर्ण प्रथाओं का विवरण निम्नलिखित है
(i) एकरूपता की प्रथा - इस प्रथा के अनुसार, लेखांकन की जिस पद्धति एवं नियम को एक बार अपनाय उन्हें जल्दी-जल्दी परिवर्तन नहीं करना चाहिए। यदि लेखांकन पद्धति में अधिक परिव किया जाए तो तुलन अध्ययन करने में कठिनाई होती है एवं निष्कर्ष वास्तविक नहीं होते। विधियों में परिवर्तन का प्रभाव संस्था के लाभ पर पड़ता है।
(ii) रूढ़िवादिता का प्रथा - इस प्रथा के अनुसार व्यवसायी को भविष्य में होने वाली संभावित हानियों की व्य आयोजन या प्रावधान कर लेना चाहिए। भविष्य के संभावित लाभों को ध्यान में नहीं रखना चाहिए। इस प्रथा के आधा अन्तिम रहतिया का मूल्यांकन लागत मूल्य अथवा बाजार मूल्य जो भी दोनों में से कम हो के आधार पर किया जाता है करने का प्रमुख कारण व्यवसायी को भविष्य में होने वाले संभावित उच्चावचनों के कारण होने वाली हानियों से बचान
(iii) सारता की प्रथा - सारता से आशय है महत्वपूर्ण अतः इस प्रथा के अनुसार व्यवसायी को प्रकाशित व खाते एवं विवरण बनाते समय केवल उन्हीं मदों को शामिल करना चाहिए जिनका प्रकाशन व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण मदों का निर्धारण व्यवसाय के आकार, मद की प्रवृत्ति, मद पर किया गया व्यय प्रबंध संबंधित तथ्यों आि निर्भर करता है।
(iv) प्रकटीकरण की प्रथा - इस प्रथा से आशय है कि वित्तीय विवरण को प्रकाशित करते समय उसके साथ सभी तथ्यों और सूचनाओं को सही-सही प्रकट किये जायें जो महत्वपूर्ण हो एवं जो व्यवसाय को प्रभावित करते सूचनाओं के प्रकटीकरण के लिए बैलेंस शीट, लाभ-हानि खाते इत्यादि बनाए जाते हैं। वार्षिक रिपोर्ट में केवल उन्हीं त एवं सूचनाओं को प्रकट किये जायें जो प्रबंध के लिए आवश्यक है।
(v) विधि अनुरूपता की प्रथा - इस प्रथा के अनुसार वार्षिक खाते बनाते समय या सामान्य लेखांकन करते स उन नियमों को अवश्य मानना चाहिए जो विधान द्वारा निर्मित हो। पृथक-पृथक संस्थाओं के संबंध में पृथक-पृ संविधान बनाए गए हैं। उन संस्थाओं द्वारा लेखांकन प्रणाली का चयन उसी विधि के अनुरूप किया जाना चाहिए।
3. सतर्कता (Conservatism or prudence) -
लेखांकन के इस सिद्धांत का संबंध सम्भावित हानियों के प्र सावधानी रखने से है अर्थात् भविष्य में होने वाली सम्भावित हानि से सुरक्षा के लिये वर्तमान में ही व्यवस्था कर सर्तकता है।
भविष्य में होने वाले सम्भावित हानियों को सही-सही अनुमान लगाना संभव नहीं है, लेकिन पूर्वानुमान लगाव इसके लिये पूर्व में ही प्रावधान कर लेना व्यवसाय के लिए लाभदायक है। संभावित हानियों के लिये व्यवसाय करते सम् यह निश्चित कर लेना आवश्यक है।
इस तरह के प्रावधानों का व्यवसाय के भविष्य पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा सर्तकता के सिद्धांत के प्रयोग के उदाहरण निम्नलिखित है
(i) अंतिम स्कंध का मूल्यांकन लागत मूल्य व बाजार मूल्य जो कम हो कम मूल्य पर किया जाता है।
(ii) देनदारों पर डूबत ऋण संचय या प्रावधान अप्राप्त देनदार राशियों का पूर्वानुमान लगाकर किया जाना।
(iii) संभावित हानियों के लिये संचय या प्रावधान।
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- पुस्तपालन का अर्थ तथा परिभाषा
- लेखांकन का अर्थ एवं परिभाषा तथा उद्देश्य
- वैश्वीकरण के प्रमुख घटक कौन कौन से हैं
- लेखांकन का अर्थ एवं परिभाषा तथा उद्देश्य
- लेखांकन की प्रणाली क्या है
- मूलभूत लेखांकन की अवधारणाएँ
- उद्योग क्या है? उद्योग कितने प्रकार के होते हैं?
- वाणिज्य का अर्थ एवं उसके प्रकार, महत्व, विशेषता क्या है?
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